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तुम विधाता और धाता, सृष्टि के ओंकार हो। और सामाजिक व्यवस्था, के तुम्ही आधार हो।।
ऋ.पृ. 98
कच्छ महाकच्छ आदि के द्वारा ऋषभ की उदारता ओर उनकी 'छत्रछाया' की व्यंजना 'सदय सिर पर हाथ है' कथन से भी की गयी है -
था हमें विश्वास पल-पल, प्रभु हमारे साथ हैं क्यों हमें चिन्ता अभयदय, सदय सिर पर हाथ है।
ऋ.पू. 103
ऋषभ की छत्रछाया में पलने वाले नागरिक नहीं चाहते कि ऋषभ उनका त्यागकर विजन वास करें क्योंकि जो कुछ भी है जन समाज में ही है, जहाँ जन ही नहीं वहाँ मिलेगा क्या ? ऋषम के विजन वास की उपलब्धि का अनुमान न लगा पाने के कारण ही जनसमूह उसे 'प्याज' की व्यंजना से तिरस्कृत अथवा त्याज्य मानता है -
छत्र-छाया में पले हम, हो रहा क्या आज है ? क्या मिलेगा विजन में अब, नाथ ! यह तो प्याज है ?
ऋ.पृ. 104
संसार के प्रति ऋषभ की विरक्ति भाव की व्यंजना 'अन्तर्गत के दरवाजे
हैं सारे बन्द' कथन से की गयी है -
कान खुले हैं, अन्तर्मन के, दरवाजे हैं सारे बन्द | स्पंदन की इस चित्रपटी पर, विरल चित्र होता निस्पंद।
ऋ.पृ. 106
शरीर का पोषण भोजन से और आत्मा का पोषण ज्ञानानन्द से होता है। ऋषभ के साथ दीक्षित हुए अन्य शिष्यों की समस्या भी भूख, जिसके कारण वे साधना-मग्न ऋषभ के चारों ओर मंडराते रहते थे। कामना पूरी न होने पर वे सब उनसे किनारा कस लिए। यहाँ 'भ्रमरों के गुंजारव मौन' के लक्षणा मूला व्यंजना से ऋषभ के प्रति शिष्यों की क्षुधा-तृप्ति न होने के कारण विरक्ति का भाव व्यक्त हुआ है -
आसपास मंडराने वाले, भ्रमरों का गुंजारव मौन हो न पराजित भूख-प्यास से, जग में ऐसा मानव कौन ? ऋ.पृ. 113
ईच्छाएँ अनन्त हैं, और जब तक इच्छाएँ शेष हैं तब तक सांसारिकता से
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