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हुई फुलवारी से भी की गई है।
होती स्वतंत्रता अपनी सबको प्यारी, पर जठर- वेदना से मुरझी फुलवारी ।
ऋ. पृ. 54 राजा और जनता के परस्पर मधुर सम्बन्धों के आधार को 'सागर' और उसकी एक-एक बूंद के साहचर्य से व्यक्त किया गया है । यदि जन-जन स्वयं से राजा को अभिन्न पाता है, तभी वह राजा कारूणिक राजा के रूप में माना जाता है। यहाँ सागर और बिन्दु की व्यंजना से राजा एवं प्रजा की अभिन्नता दर्शित की गयी है
छोटी मंडल, छोटी सीमा, नेता में करूणा का सिन्धु
सागर भिन्न नहीं है मुझमें, अनुभव करता है हर बिन्दु ।
ऋ. पृ. 71 पिता के राज्य त्याग के निश्चय से भरत को राज्य की संपूर्ण सुख सुविधा 'तुषा' के समान प्रतीत होती है । यहाँ पिता की श्रेष्ठता के समकक्ष राज्य वैभव की तुच्छता की व्यंजना 'तुषा' से तथा ऋषभ के व्यक्तित्व एवं करूणा की व्यंजना क्रमशः 'धान्य' और 'बादल' से की गयी है
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शिरोधार्य वाणी प्रभुवर की, किन्तु न मन को मान्य लगता है यह राज्य तुषोपम, दूर हो रहा धान्य
बरसो - बरसो अब पर्जन्य! हो जाए अन्तस्तल धन्य ।
ऋ. पू. 86
उदारवादी शासक का सम्मान जनता हृदय से करती है। ऐसे सहृदय राजा के प्रति जनता के समर्पण भाव की व्यंजना 'खो देता नर होश' उक्ति से की गयी है। 'राजनीति संबोध' के अंतर्गत ऋषभ भरत से कहते हैं
केवल निग्रहनीति से बढ़ता जन आक्रोश सिर्फ अनुग्रह - नीति से, खो देता नर होश
ऋ. पृ. 88
ऋषभ के लिए जनप्रतिनिधि द्वारा विधाता, धाता, ओंकार तथा सामाजिक व्यवस्था के आधार का विशेष कथन उनके सर्वशक्तिमान स्वरूप को व्यंजित करता
है
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