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को पीड़ा देना ऐकान्तिक साधना है, जो हितकर नहीं। सत्य पारदर्शी होता है। शरीर भी सत्य है, आत्मा भी सत्य है। सत्य दोनों है, भेद उनकी स्थिति में है। श्रेष्ठ साधना वह है जो स्वयं जागृति की दशा में रहते हुए लोक को जागृत करे, इसके लिए शरीर का चलायमान होना आवश्यक है। धर्म चक्र का विकास लोक में तभी होगा। अनेकांतवाद मताग्रह से परे संतुलन एवं व्यवस्था का नाम है :
केवल कृश करना वपु को है प्रस्फुट ही ऐकांतिक वाद पोषण और तपस्या में ही अनेकांत संभव संवाद।
ऋ.
पृ. -116.
ऋषभ का 'आहार' के लिए चक्रमण आध्यात्मिक, सांस्कृतिक जागृति का चक्रमण है। यह त्याग से योग और योग से 'लोक' को जागृति देने का संदेश है। साधित विरक्त आत्मा सहज ही लोकासक्त जन की भावना को मोड़ सकती है। 'पारणा' तो एक बहाना है। सही मायने में यह 'पारणा' आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आत्मा का स्वागत है। दूसरी ओर धर्म प्रवर्तन का संकेत भी। आहार चक्रमण के समय नागरिकों द्वारा स्वर्ण, नाना प्रकार के मणि, अश्व, गज तथा स्निग्ध भोजन के समर्पण की ओर उनका कोई ध्यान नहीं। वे मौन व प्रशांत भाव से आगे बढ़ जाते हैं। वे निरवद्य अशन चाहते है। 'निरवद्य अशन' से शुद्ध एवं अहिंसक विचार पनपते हैं। भोजन से 'विचार' प्रभावित होते हैं, या यों कहें भोजन के अनुरूप विचार ढलते हैं इसलिए "उद्दिष्ट' अशन भी वर्जित है। ये वर्जनाएँ अहिंसा के विकास के लिए आवश्यक हैं :
जल, सुशीत अपक्व वर्जित, अशन जो उद्दिष्ट है।
पर अहिंसा साधना में दृष्ट पर अस्पृष्ट है।। ऋ.पृ.-119
स्वप्न दर्शन के पश्चात् श्रेयांस द्वारा ऋषभ की 'पारणा' हेतु इक्षुरस का दान महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह 'निरवद्य' है। यह 'पारणा' दिवस भविष्य में अक्षय तृतीया के पर्व के रूप में ख्यात हुआ। 'अक्षय तृतीया के नाम से विश्रुत वह महान् पर्व त्याग-तपोमय जैन संस्कृति का स्वयंभू साक्ष्य बना हुआ है। उस दिन वर्षीतप
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