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माँ मरूदेवा की ऋषभ के प्रति चिंता, युद्ध वर्णन आदि प्रसंगों में अभिधा शक्ति के द्वारा कवि ने आकर्षक बिम्बों की रचना की है। अभिधामूलक शैली के उपयोग से कथा में गति आती है, घटना और दृश्य स्पष्ट होते जाते हैं, जिस प्रकार गहन अंधकार में क्षण भर के लिए ही सही, प्रकाश की एक किरण सम्बन्धित परिवेश की एक-एक वस्तु को स्पष्ट कर देती है, वैसे ही अभिधा शक्ति काव्यारण्य में एक-एक घटना अथवा दृश्य का विवरण प्रस्तुत कर मुख्यार्थ को बिम्बित करती है । भवन, गाँव, नगर की आवश्यकता से परे युगलों का वनवासी जीवन मानवीय विकारों एवं दुर्बलताओं से सर्वथा मुक्त था, जीवन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए उनकी आवश्यकताएँ भी सीमित थीं जिसकी पूर्ति कल्पवृक्षों से सहजता से हो जाती थी। सब स्वस्थ थे। स्वतंत्र जीवन था । स्वर्ण, रजत, मणिमुक्ता का अक्षय भंडार प्रकृति में भरा पड़ा था किंतु उसका कोई उपयोग नहीं था । निम्नलिखित पंक्तियाँ यौगलिक जीवन का दृश्य उपस्थित कर अभिधामूलक बिम्ब का सृजन करती हैं
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नहीं गाँव है, नहीं नगर है, करते हैं सब जब वनवास नहीं भवन है, नहीं रसवती, सहज सिद्ध जैसे सन्यास |
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नहीं अर्थ है, नहीं दंड है, नहीं अपेक्षित है व्यापार सीमित आवश्यकता, सीमित, इच्छा, सीमित-सा संसार । जीवन की आवश्यकताएँ, कल्पवृक्ष से होती पूर्ण
नहीं रोग है, नहीं चिकित्सा, नहीं प्राप्त त्रिफला का चूर्ण ।
इच्छाधारी है स्वतंत्र परतंत्र, बनाता ग्राम - निवास
स्वर्ण, रजत, मणि, मुक्ता सब हैं, किन्तु नहीं परिभोग विकास । ऋ.पू. 7
सम्बन्धों में जीते हुए उसकी अनुरक्ति से परे यौगलिक जीवन के साथ पशुओं एवं इतर प्राणियों की स्थिति तथा स्वभाव का चित्रण भी अभिधामूलक है
माता और पिता, भाई- भगिनी, का समुचित है संबंध किन्तु सहज जीवन है सबका, नहीं तीव्र है प्रेम संबंध ।
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ऋ. पृ. 6
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