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आह्लाद का संबंध चित्त से है, और आकाश का संबंध बादल से। माँ, मरूदेवा से आशीर्वाद प्राप्त कर भरत जब अपने प्रासाद में आते हैं तब उनके चिदाकाश में आह्लाद के बादल उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं। यहाँ चित्त एवं आलाद अमूर्त की अभिव्यक्ति आकाश एवं बादल से की गयी है -
पा आशीष महामाता से, आया नृप अपने प्रासाद उमड़ रहा है चिदाकाश में, महा मुदिर बनकर आह्लाद | ऋ.पृ. 149
जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के लिए भी कवि ने बिम्ब सृजित किए हैं। जिस प्रकार से महासिंधु की अगाध जल राशि में तरंगें सहज रूप में उठती गिरती रहती हैं, वैसे ही पुनर्जन्म रूपी नियति चक्र में आत्मा का प्राकाट्य विविध रूपों में होता रहता है -
महासिंधु की सलिल राशि में, उठती-गिरती सहज तरंग। पुनर्जन्म के नियति चक्र में, आत्मा के नानाविध रंग।। ऋ.पृ. 159
सूक्ष्म से सूक्ष्म मानवीय अमूर्त वृत्तियों की अभिव्यक्ति के लिए भी कवि ने पारम्परिक रूप से उसी अनुरूप मूर्त का निर्माण कर भावों को स्पष्ट किया है। नवविधियों को वरदान स्वरूप प्राप्त कर भरत फूले नहीं समाते जिससे उनके भाव रूपी सागर में आनंद की उत्ताल तरंगें उठने लगती हैं क्योंकि नवनिधियों के प्रभाव से राष्ट्र के विकास के साथ ही साथ जन-जन के सौभाग्य सितारे भी चमकने लगेंगे -
आनंद उर्मि उत्ताल भाव-सागर में, किसने देखा है सागर को गागर में। द्रुतगति से होगा विकसित राष्ट्र हमारा, चमकेगा मानव का सौभाग्य सितारा।
ऋ.पृ. 184 अन्य राज्यों पर विजय प्राप्त कर भरत अयोध्या की ओर प्रस्थान करते हैं। वे महसूस करते हैं कि दिशा रूपी वधू के कमलवत् मुखमण्डल पर मुस्कान की जो रेखा दिखाई दे रही है वह मनोहारी है। यही नहीं ऐसा लगता है, जैसे हर्ष की उत्ताल तरंगे भरत के रूप में अयोध्या के लिए प्रस्थान कर रही हों -
दिग्वधू के मुख कमल पर, नयनहर मुस्कान है। हर्ष की उत्ताल ऊर्मि, का नया प्रस्थान है।
ऋ.पृ. 218
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