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- 'समता' अमूर्त भाव का बिम्बाकंन समान रूप से प्रकाश का वितरण करने वाले 'सूर्य' और 'चन्द्रमा' के मूर्त रूप से उद्घाटित किया गया है। ऋषभ राज्य में ऊंच-नीच का कोई भेदभाव नहीं था, सबका समान रूप से सम्मान होता था। इस प्रकार राजनीति के सन्दर्भ में ऊंच-नीच भेदभाव से परे समानता के व्यवहार से संचालित राज्य व्यवस्था निरंतर समान रूप से प्राणीजगत को प्रकाश प्रदान करने वाले सूर्य और चंद्रमा के समान होना चाहिए -
ऊंच नीच का भेद नहीं है, सब नर एक समान । भेद व्यवस्थाकृत है केवल, सबका सम सम्मान। सरज में है जो सौदर्य, चंद्रमा है उतना ही वर्य ।।
ऋ.पृ.91
सत्य, संयम की अमूर्तता को भी कवि ने सुवासित कुसुम से मूर्तता प्रदान
की है -
अधखिली कली में विकस्वर, कसम का आकार है।
सत्य संयम की सुरभि का, बन रहा प्रकार |
ऋ.पृ. 93
त्याग पथ पर ऋषभ के साथ चलने के लिए आतुर जनप्रतिनिधि द्वारा 'संयम' अमूर्त भाव को 'कल्पतरू' से बिम्बित किया गया है -
छोड भोगावास हम भी, त्याग के पथ पर चलें, सुखद संयम कल्पतरू की, छांह में फूलें फलें।
ऋ.पृ. 98
निर्गुण साधना की अमूर्त्तवस्था का उद्घाटन कवि ने महासागर में निमग्न 'मीन' से किया है। निर्गुण आत्मानन्द में प्रतिक्षण ऋषभ वैसे ही लीन हो जाते हैं, जैसे महासागर की विपुल जल राशि में मछली निमग्न हो जाती है -
निर्गुण आत्मानन्द में, हुए प्रतिक्षण लीन। जैसे सलिल-निमग्न हो, महासिन्धु का मीन।
ऋ.पृ. 108
मंत्रपाठ द्वारा सिद्धि लाभ में रत साधक की क्रियात्मक अमूर्त दशा का उद्घाटन तिनके को चुनचुन कर नीड़ निर्माण में रत 'शकुनिपक्षी' के बिम्ब से नियोजित किया गया है -
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