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.: उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल परिवर्तन की सतत् गतिमयता को 'चक्र' तथा निरन्तर प्रवहमान जल की धारा से मूर्तित किया गया है -
परिवर्तन का हेतु काल, वह, जलप्रवाह ज्यों बहता है। द्वादशार यह कालचक्र, गतिशील निरंतर रहता है। ऋ.पृ. 6
जीवन सुख दुःख का संगम है। दुःख कष्टकारी है तो सुख मनोहारी। किन्तु यदि व्यक्ति के जीवन में कष्ट ही कष्ट हो, सुख का अनुभव लेशमात्र भी न हो तो वह जीवन दूभर हो जाता है, इसलिए थोड़ा सुख, थोड़ा दुःख, थोड़ा कष्ट, थोड़ा आराम का होना आवश्यक है तभी जीवन का संघर्ष सफलीभूत होता है। तभी जीवन पकता है। मिट्टी का बना हुआ घड़ा बिना अग्निताप के पक नहीं सकता, वैसे ही कष्टहीन जीवन संपूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। यहां अग्निताप के अभाव में मृद जनित घट के न पकने की स्थिति से जीवन में कष्ट की उपादेयता को चित्रित किया गया है -
कष्ट केवल कष्ट ही हो, मनुज जी सकता नहीं, अग्निताप-अभाव में, मृद जनित घट पकता नहीं।
ऋ.पृ. 15
संवेग अथवा मनोवेगों के उद्घाटन में कवि ने अमूर्त के लिए मूर्त की योजना के साथ अमूर्त का चित्रण अमूर्त रूप में भी किया है -
मत्त मद से बन द्विरद ने, व्यर्थ अंकश को किया है, युगल के संवेग ने गति, वेग आशुग से लिया है।
ऋ.पृ. 25
यहाँ युगलों की अनुशासनहीनता, अतिक्रमणता की अमूर्त्तता का उद्घाटन मदमस्त उस मतवाले हाथी से किया गया है जो अंकुश के नियंत्रण को भी अस्वीकार कर देता है, दूसरी ओर युगलों के संवेगों की गति का चित्रण वेगवान आशुग (पवन) से किया गया है जो स्पर्श जन्य होते हुए भी अगोचर है। आशा अमूर्त भाव को पावन दीप से भी बिम्बित किया गया है। माँ मरूदेवा द्वारा देखे गए स्वप्नों का वर्णन सुनकर नाभिराज यह सोचकर प्रसन्न हो जाते हैं, जैसे युग को प्रकाशित करने वाला आशादीप उनके हाथ लग गया हो -
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