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अध्याय-पंचम ऋषभायण में मूर्त्तामूर्त बिम्ब
बिम्ब के द्वारा भाषा में चित्रात्मकता आती है। बिम्ब की मूल प्रकृति संमूर्त्तन की प्रक्रिया में निहित रहती है। इसीलिए अमूर्त भावों या पदार्थों को मूर्तता प्रदान करना बिम्ब का प्रमुख कार्य है। सादृश्य मूलक अलंकारों या अन्य स्थलों पर जहाँ मूर्त से अमूर्त, अमूर्त से मूर्त की अभिव्यक्ति की जाती है वहाँ श्रेष्ठ एवं सुन्दर बिम्ब निर्मित होते हैं। ऋषभायण में मूर्तामूर्त बिम्बों का उद्घाटन कवि ने सफलता पूर्वक किया है। वर्ण्य को ऐन्द्रिय बनाने के लिए कवि द्वारा प्रयुक्त उपमानों के आधार पर बिम्बों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है - 1. मूर्त के द्वारा अमूर्त की उपस्थापना, 2. अमूर्त के द्वारा मूर्त की अभिव्यक्ति ।
मूर्त के द्वारा अमूर्त की उपस्थापना -
ऋषभायण में अमूर्त की अभिव्यक्ति के लिए अनेक मूर्त रूप प्रस्तुत किए गए हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म अथवा अमूर्त से अमूर्त भावों व स्थितियों को कवि ने सफलता पूर्वक गोचर बनाया है जिसके तमाम उदाहरण आसानी से देखे जा सकते हैं। सृष्टि का शनैः शनैः विकास प्रकृति की एक अमूर्त प्रक्रिया है, जिसमें परिवर्तन समाहित है। यह समूची सृष्टि वर्तमान, भूत और भविष्य जैसे त्रिकालों में विभक्त है। इनकी भी एक निश्चित सीमा है, जिसमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन की इस अमूर्त दशा को दुग्ध से निर्मित होने वाले 'घृत' से दर्शाया गया है। 'दुग्ध' के द्वारा घृत के निर्माण से कवि ने 'भूत' और 'वर्तमान' को गोचरता प्रदान की है -
1.
सत्ता कालातीत न उसकी, सीमा में है भूत भविष्य । कालभेद परिवर्तन में है. जो कल था पय, आज हविष्य ।।
ऋ.पू. 3
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