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रहा करती थीं तथा भरत से वार्तालाप करते समय उलाहना भी दिया करती थी। उलाहना का प्रभाव अति तीव्र होता है इसीलिए उसके भार को 'मंदराचल' से भी अधिक गुरू गंभीर कहा गया है -
मंदर पर्वत से भी ज्यादा, उपालंभ का होता भार। ऋ.पृ. 153
साधना में रत बाहुबली की अचलता का प्रकाशन भी हिमालय के आधार से किया गया है। युद्ध के अपराध-बोध से द्रवीभूत भरत, बाहुबली को तपस्वी की मुद्रा में देखकर कहते हैं कि विजयश्री का वरण करने के बावजूद भी यह हिमालय की तरह निर्विकार तथा निष्कंप है -
है किया अपराध मैंने, युद्ध भाई से लड़ा है। विजय का वरदान लेकर, यह हिमालय सा खड़ा है। ऋ.पृ. 291
प्रतिमा, स्तंभ तथा 'भित्ति' का बिम्बांकन संज्ञा शून्यता व शरीर की जड़ता के लिए किया गया है। पुत्र को संयम पथ पर अग्रसर होते देख स्तंभित मां मरूदेवा अकम्प स्थिति में मौन मूर्ति के समान जहाँ थी वहीं खड़ी रह जाती है
माता भी मरूदेवा स्तंभित, मौन मूर्ति सी खड़ी रही। ऋ.पृ. 106
यही नहीं समवसरण में आत्मलीन ऋषभ की स्थिरता का चित्रण भी प्रतिमालीन कथन कर किया गया है। (17)
नर शिशु को मृत्यु दशा में देखकर सुनंदा भी निःस्पन्द हो जाती है। उस समय न तो वह कुछ बोल सकी और न ही अपने से हिलडुल सकी। यहाँ तक कि उसका मस्तिष्क भी विचार शून्य हो गया। वह मात्र प्रतिमा के समान निर्जीव स्थिर खड़ी दशा में दिखाई दे रही है -
हिल न सकी वह, बोल सकी ना, मानस चिंतन शून्य हुआ, प्रतिमा सी स्थिर स्तब्ध खड़ी है, जीवन हाय अनन्य हुआ। ऋ.पृ. 40
सामान्यतः जड़त्व स्थिति के लिए 'स्तम्भ' का प्रयोग प्रायः होता रहा है। पिता के संयम पथ पर गमन के निर्णय से भरत की स्तब्धता जड़ता में परिवर्तित हो जाती है। उनकी आंखें आँसुओं से परिपूर्ण है। भाव विह्वल होने के कारण वे बोल
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