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» समीक्षा के तत्व
1. वस्तु पक्ष - कविर्मनीषी आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रणीत 'ऋषभायण' महाकाव्य लौकिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक धारणाओं से संपृक्त आदिम संस्कृति के विकास की, कालचक्र के परिवर्तन की अद्भुत गाथा है। महाकाव्य का विभाजन अट्ठारह सर्गों में किया गया है। प्रत्येक सर्ग के प्रारंभ और अंत में कवि द्वारा श्लोक की योजना की गयी है। ये श्लोक जैसे प्रत्येक सर्ग को मंत्रवत् संपुट में बाँध रहे हों। महाकाव्य की पीठिका में 'लोक' और 'अध्यात्म' से संबंधित विविध प्रश्नों को ज्ञापित किया गया है जिसका सहज, विस्तृत एवं व्यवस्थित रूपयण 'ऋषभायण' में मिलता है।
सर्ग का प्रारंभ ‘यौगलिक युग' से होता है। यह कथा भारतीय संस्कृति के आदि सर्ग की कथा है। हिमालय के परिपार्श्व में यौगलिक अथवा आदिवासी युग का विकास हो रहा था। लोक और सृष्टि के इस विकास में पुद्गल की ही भूमिका है। 'गलन, मिलन स्वभाव के कारण पदार्थ को पुद्गल कहा गया है। (१) सभी जीव, रूप, आकार, पुद्गल से निर्मित है। पुद्गल नश्वर है, सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म में रूपान्तरण की क्रिया पुद्गल से ही होती है।
___समय निरंतर गतिमान है, इसकी सत्ता का निर्धारण दुष्कर है। जैनागमों के अनुसार कालखण्ड का निर्धारण छह रूपों में किया गया है जिनके नाम हैं - 1. सुषम-सुषमा, 2. सुषमा, 3. सुषम-दुषमा, 4. दुषम-सुषमा, 5. दुषमा और 6. दुषम–दुषमा। प्रथम से छठे तक अवनति की ओर चलने वाली कालचक्र की गति को 'अवसर्पिणी' तथा छठे से पहले की ओर उसके उत्कर्ष गामी प्रवाह को 'उत्सर्पिणी' काल कहा गया है। यह श्रृंखला इस जगत में अनादि-अनन्त प्रवहमान है। अवसर्पिणी के दूसरे कालखण्ड तक यौगलिकों का जीवन निस्पृह, निरामय था। सब निर्भय थे। न कोई शासक था, न कोई शासित। किसी में हिंसावृत्ति नहीं थी। पशु थे किंतु उनका उपयोग नहीं था। उनमें भी आपसी हिंसा नहीं थी। अकाल मृत्यु का लेश नहीं था। पीड़ा, दुखः बैर, प्रेम, क्रोध कुछ नहीं था। यदि कुछ था तो वह था प्रकृति का मनोमय, मनोहर प्रशांत रूप। युगलों का जीवन कल्पवृक्षों पर आधारित था। मृदांग, मूंग, त्रुटितांग, दीपांग,