________________ विविध सूक्ष्म बिम्बों से उकेरी गयी है - अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा ! देखो मैंने कंधे चौड़े कर लिए हैं मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं . खड़ा होना मैंने सीख लिया है घबराओ मत, मैं क्षितिज पर आ रहा हूँ सूरज जब ठीक पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा मैं कंधे अड़ा दूंगा देखना, वह वही ठहरा होगा। (160) प्रतीक और मुहावरों से संवरी यह कविता प्रतिभा के रूप में 'सूरज' को मूर्तित करती है। पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर ढलने वाले 'सूरज' के बिम्ब से अपने देश (भारत) से पाश्चात्य जगत की ओर आर्थिक लाभ हेतु पलायन कर रही युवा पीढ़ी को रेखांकित किया गया है। पूरी कविता में मुहावरे व प्रतीक परक बिम्ब उभरे हैं। कविता में कथ्य और बिम्ब दोनों महत्वपूर्ण हैं। कथ्य साध्य है बिम्ब साधन। जहाँ भी कवि कथ्य की उपेक्षा कर बिम्ब को ही सर्वोपरि मानकर चलता है अर्थात् बिम्ब को ही साध्य मान लेता है तो वह सशक्त के बजाय अशक्त कविता लिखता है | (161) रचना की दृष्टि से दोनों प्रकार के कवि मिलते हैं, वे भी हैं जो अभिव्यक्ति को महत्व देते हैं और एक तरह से रूपकार वादी हैं, और वे भी हैं जो कथ्य पर अधिक जोर देते हैं। अज्ञेय और मुक्तिबोध के सम्बन्ध में रणजीत और रशाद अब्दुल वाजिद लिखते हैं कि - 'अज्ञेय की कविता मुक्तिबोध की अपेक्षा अधिक बिम्बात्मक है। यह बात और तथ्यों से पुष्ट होती है कि मुक्तिबोध कथ्य पर अधिक जोर देते हैं, जबकि अज्ञेय के यहाँ कथन का, व्यक्ति का अधिक महत्व है। एक वाक्य में मुक्तिबोध अधिक विषय वस्तुवादी और अज्ञेय अधिक रूपकार वादी है। (102) बिम्ब प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों का होता है, जबकि नये कवियों ने अप्रस्तुत विधान को प्रस्तुत की तुलना में अधिक महत्व दिया, जिससे क्षुब्ध हो डॉ. 171