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शिखर तक पहुँचाना कवि सामर्थ्य पर निर्भर करता है, उपकरण चाहे नया हो अथवा पुराना। (49) इस प्रकार काव्य में भावों का सृजन बिम्बात्मक रूप में होता है। भाव
और बिम्ब को यदि एक दूसरे का पूरक कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। ‘राम विलास शर्मा के अनुसार 'मूर्ति विधान वही सार्थक है, जो भावों से अनुप्राणित हो जिसमें सहज इन्द्रियबोध का निखार हो। 'दूर की कौड़ी लाना' काव्य रचना नहीं दोनों का बौद्धिक व्यायाम है।' (60)
रसानुभूति में बिम्बात्मकता समाहित रहती है, रससिद्ध कवियों की रचनाएँ बिम्बों से परिपूर्ण रहती है। प्राचीन कवि वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट, सूर तुलसी, बिहारी आदि की रचनाएँ इसका प्रमाण है। रस और बिम्ब का सम्बन्ध प्रस्तुत श्लोक में भी देखा जा सकता है -
एवम् वादिनी देवर्षों पितुरधोमुखी, लीला कमल पत्राणि गणयामास पार्वती।। (61) (कुमार सम्भव)
उक्त श्लोक में लज्जा, संकोच, प्रसन्नता आदि भावों का वर्णन बिम्ब रूप में किया गया है। आचार्य शुक्ल ने 'अनुराग' से विहीन बिम्ब विधान को उपयोगी नहीं माना है।62) वस्तुतः स्थायी भाव एवं रस के विभिन्न अवयव आलम्बन, आश्रय, उद्दीपन, अनुभाव, संचारीभाव आदि नाटक में तो 'साकार' रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं, पर काव्य में उनका बिम्ब ही प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि 'यदि रस साध्य है तो बिम्ब उसका साधन, काव्यात्मक बिम्ब किसी भी कविता की वह अन्तः शक्ति है, जिसके कारण रस निष्पत्तिः एवं रसास्वादन सम्भव हो पाता है और रसास्वादन की प्रक्रिया पूर्ण हो पाती है।(63)
इसी शोध प्रबंध में 'रस और बिम्ब' शीर्षक के अंतर्गत वैचारिक स्थापनाएँ
दृष्टव्य है।
5. रीति सिद्धांत में बिम्ब के संकेत - रीति के सम्बन्ध में आचार्य वामन ने लिखा है कि 'विशिष्ट पद रचना रीतिः और इसमें विशिष्टता गुण के कारण आती है। वामन के अनुसार 'गुण काव्य के शोभा कारक धर्म है, जो शब्दगत भी होते हैं और अर्थगत भी। वामन ने संपूर्ण काव्य वैभव को गुण में ही केन्द्रिय किया है। गुण
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