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दो शब्द पाश्चात्य साहित्यिक जगत में समयानुक्रम में जो-जो वैचारिक धाराएँ प्रवाहित होती रही हैं, उसका प्रभाव किसी न किसी रूप में पौर्वात्य साहित्य पर भी पड़ता रहा हैं। 'प्रतीक' की भाँति 'बिम्ब' विद्या का विकास पाश्चात्य जगत् की ही देन हैं। इसका मतलब यह कतई नहीं लगाया जा सकता कि भारतीय कवि बिम्ब विधान से अपरिचित थे। सिद्धांतः भारतीय काव्यशास्त्र में ध्वनि, रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, औचित्य, की विशद व्याख्या मिलती है, किन्तु सिद्धांत के तौर पर बिम्ब विधान पर कोई चर्चा नहीं की गई है। जबकि उपर्युक्त सभी भारतीय काव्यशास्त्रीय के विचारों की दृष्टि से बिम्ब की पुष्टि होती हैं। ध्वनि, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति आदि अपना प्रकाशन बिम्बात्मक रूप में ही करते हैं। 'रस' को तो भाव दशा का क्रियमाण तत्व होने के कारण काव्य की आत्मा के रूप में ही स्वीकार किया गया है। 'भाव' अथवा 'विचार' के प्रस्फुरण में कवि की कल्पना की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कल्पना के द्वारा भाव सत्य का प्रकाशन बिम्ब के रूप में ही होता हैं। इस प्रकार बिम्ब आधुनिक काल की एक ऐसी महत्वपूर्ण काव्य विधा है, जिसमें भाव चित्र स्पष्टतः उभरते हैं। कवि की कल्पना जितनी ही मर्मस्पर्शी होगी, भाव चित्र भी उतना ही गहरा होगा।
यो तो हिन्दी साहित्य में छायावादी युग से ही सिद्धांत रूप में बिम्ब बहुला कविताएँ लिखी जाने लगी थी। आचार्य शुक्ल जैसे मूर्धन्य समीक्षों ने भी कवि एवं काव्य की कसौटी बिम्बों के सशक्त प्रयोग को ही माना हैं। डॉ. नगेन्द्र, डॉ. केदारनाथ सिंह, डॉ. अखौरी, बृजनंदन प्रसाद जैसे प्रभृत्त विद्वानों ने बिम्ब के स्वरूप तथा उसके क्रियमाण प्रभाव की विषद विवेचना की है। जिससे आधार बनाकर हिन्दी साहित्य व संस्कृत साहित्य के अधिकांशतः पुराने व नवीन कवियों के द्वारा बिम्ब विधा की गहराई से तलाश भी की गई है। हिन्दी साहित्य में सूर, तुलसी जायसी, प्रसाद, पंथ, निराला, महादेवी वर्मा, सुमन, मुक्तिबोध, समशेर बहादुर सिंह, अज्ञेय आदि ऐसे कवि है, जिन्होंने सशक्त बिम्बों को गढ़ा हैं। आज भारतीय काव्य के साँचे में 'बिम्ब' इस रूप में ढल गया है कि लगता ही नहीं कि वह पाश्चात्य जगत की देन है। प्राचीन कवियों को बिम्ब की कसौटी पर कसने से ऐसा लगता है कि कवि पूर्णतः इस विद्या से परिचित थी। भले ही इसका जन्म आधुनिक काल में हुआ।