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सम्यग्दर्शन का लक्षण
अनिष्टपने की कल्पना रहा करती है तथा वह ऐसे अज्ञानमय राग-द्वेष के कारण से वस्तु के वस्तुप का प्रतिभास न करके मात्र इष्ट-अनिष्टपने रूप से ही (अर्थात् मात्र विशेषभावों का ही अनुभव करता है, क्योंकि वह पर्यायदृष्टि ही होता है) वस्तु का अनुभव करता है, तब सम्यग्दृष्टि जीव को अज्ञानमय राग-द्वेष का अभाव (अर्थात् उसे मात्र शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि होने से, रागद्वेष गौण करके, शुद्ध का ही अनुभव करता है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव को अज्ञानमय रागद्वेष का अभाव) हुआ होने से वह परवस्तु में इष्ट-अनिष्ट कल्पना से रहित होकर वस्तुपने का ही अनुभव करता है (मात्र शुद्धात्मा का - सामान्यभाव का ही अनुभव करता है ) । '
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गाथा २३४-२३७ अन्वयार्थ - 'एक ज्ञान का ही पात्र होने से तथा बद्धस्पृष्टादि भावों का अपात्र होने से (अर्थात् उनमें 'मैंपना' नहीं होने से ) सम्यग्दृष्टि अपने को प्रत्यक्षपूर्वक स्पष्ट प्रकार से विशेष (विभावभाव) रहित, अन्य के संयोगरहित, चलाचलतारहित तथा अन्यपने से रहित (अर्थात् औदयिक आदि भावों से रहित) स्वाद का आस्वाद करता है। तथा बन्धरहित तथा अस्पृष्ट, शुद्ध, सिद्ध समान (इसीलिए उसे देश सिद्धत्व का अनुभव होता है), शुद्ध स्फटिक समान, सदा आकाश समान परिग्रह रहित, इन्द्रियों से उपेक्षित अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्यमय अतीन्द्रिय सुखादिक अनन्त स्वाभाविक गुणों सहित अपने आत्मा का श्रद्धान करनेवाला होता है, इसलिए यद्यपि वास्तव में सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानमूर्तिवाला है तो भी प्रसंग से अर्थात् पुरुषार्थ की निर्बलता से उसे अन्य पदार्थों की भी इच्छा हो जाती है, तथापि उसे कृतार्थ जैसा परम उपेक्षाभाव वर्तता है । '