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दृष्टि का विषय
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सम्यग्दर्शन का लक्षण अब सम्यग्दर्शन का लक्षण बतलाते हैं; पंचाध्यायी उत्तरार्ध की गाथायें -
गाथा २१५ अन्वयार्थ-“तथा केवल आत्मा की उपलब्धि (अर्थात् 'मैं आत्मा हूँ' ऐसी समझ) भी सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं बन सकती परन्तु यदि वह उपलब्धि 'शुद्ध' विशेषण सहित हो अर्थात् शुद्ध आत्मोपलब्धि हो (अर्थात् मात्र शुद्धात्मा' में ही मैंपना' हो) तो ही सम्यग्दर्शन का लक्षण हो सकता है। यदि वह आत्मोपलब्धि अशुद्ध हो तो वह सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं बन सकती।"
हमने जो भेदज्ञान की बात पूर्व में की है, वही यहाँ बतलायी है, भेदज्ञानरूप स्व और पर दो अपेक्षा से होते हैं; एक, परद्रव्यरूप कर्म, शरीर, घर, मकान, दुकान, पत्नी, पुत्र इत्यादि से मैं भिन्न हूँ। ऐसा अन्य द्रव्य के साथ का भेदज्ञानरूप स्व-पर होता है और उसके बाद का जो दसरा स्व-पर है, वही सम्यग्दर्शन का कारण और लक्षण है और वह दूसरे भेदज्ञानरूप स्व-पर में, स्वरूप मात्र शुद्धात्मा वह स्व और पररूप समस्त अशुद्धभाव जो कि कर्म (पुद्गल) के निमित्त से होते हैं; वे अशुद्धभाव होते तो हैं मुझमें ही अर्थात् आत्मा ही उन भावरूप परिणमता है, परन्तु उन भावों में 'मैंपना' करने योग्य नहीं है, क्योंकि वे पर के निमित्त से होते हैं और दूसरा वे क्षणिक हैं क्योंकि वे सिद्धों के आत्मा में उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए वे भाव त्रिकालरूप नहीं हैं और इसलिए मात्र त्रिकाली ध्रुवरूप शुद्धात्मा कि जो तीनों काल में प्रत्येक जीव में उपलब्ध है और उसी अपेक्षा से ‘सर्व जीव स्वभाव से सिद्ध समान ही हैं' - ऐसा कहा जाता है उस भाव में ही अर्थात् उस 'शुद्धात्मा' में ही मैंपना' करने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और इसलिए ही शुद्ध आत्मा की उपलब्धि को सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा है।
गाथा २२१ अन्वयार्थ-वस्तु (अर्थात् पूर्ण वस्तु, उसका कोई एक भाग ऐसा नहीं) सम्यग्ज्ञानियों को सामान्यरूप से (परमपारिणामिकभावरूप से, शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषयरूप से, शुद्धात्मरूप से अर्थात् कारणशुद्धपर्यायरूप से) अनुभव में आती है, इसलिए वह वस्तु (अर्थात् पूर्ण वस्तु) केवल सामान्यरूप से शुद्ध कही जाती है तथा विशेष भेदों की अपेक्षा से अशुद्ध कहलाती है।'
भावार्थ-'मिथ्यादृष्टि जीव को राग तथा पर के साथ एकत्वबुद्धि रहने से परवस्तु में इष्ट