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नव तत्त्व की सच्ची श्रद्धा का स्वरूप
गाथा १६६- में कीचड़ सहित जल का उदाहरण है, उस कीचड़ सहित जल में ही शुद्ध जल छुपा हुआ है।
___गाथा १६७ - में अग्नि का दृष्टान्त है, उपचार से अग्नि का आकार उसके दाह्य के अनुसार होने पर भी वह मात्र अग्नि ही है अन्य कुछ भी रूप नहीं है अर्थात् दाह्यरूप नहीं है। यही बात समयसार गाथा ६ में भी बतलायी है कि ज्ञान ज्ञेयरूप परिणमने पर भी वह ज्ञायक ही है।
गाथा १६८ - में दर्पण का दृष्टान्त है, दर्पण में अलग-अलग प्रतिबिम्ब होने पर भी, उन्हें गौण करते ही मात्र स्वच्छ दर्पण ही है, वास्तव में वहाँ अन्य कोई नहीं।
गाथा १६९ - में स्फटिक का दृष्टान्त है, उस स्फटिक में कुछ भी झांईं पड़े, इस कारण से कहीं वह उस रंग का भासने पर भी. स्वरूप से वह उस रंग का हो नहीं जाता: स्वरूप से वह स्वच्छ ही रहता है।
गाथा १७० - में ज्ञान का दृष्टान्त है, ज्ञान, ज्ञेय को जानते हुए ज्ञेयरूप नहीं होता परन्तु जैसे उसमें ज्ञेय को गौण करो तो वहाँ ज्ञायक ही हाजिर है; यही रीति है सम्यग्दर्शन की। यही बात समयसार श्लोक २७१ में भी बतलायी है।
गाथा १७१ - में समुद्र का दृष्टान्त है, समुद्र की वायु से प्रेरित लहरें उठती होने पर भी वे मात्र समुद्ररूप ही रहती हैं, वायुरूप नहीं होती; परन्तु समुद्ररूप ही रहती हैं।
गाथा १७२ - में नमक का दृष्टान्त है, नमक रसोई में अन्यरूप नहीं हो जाता, तथापि अज्ञानी जीव उस नमक का स्वाद नहीं ले सकते, जबकि ज्ञानी जीव भेदज्ञान से नमक का स्वाद (शुद्धात्मा का स्वाद) ले लेते हैं। इसी बात को आगे की गाथाओं में दृढ़ कराते हैं वह अब देखते हैं।
गाथा १७८-अन्वयार्थ-‘इन नौ पदार्थों से भिन्न सर्वथा शुद्ध द्रव्य की सिद्धि नहीं हो सकती, (इसलिए किसी को वैसे भ्रम में रहने की आवश्यकता नहीं है कि पर्याय से भिन्न सर्वथा शुद्ध द्रव्य उपलब्ध होगा) क्योंकि साधन का अभाव होने से उस शुद्ध द्रव्य की उपलब्धि नहीं हो सकती।' यही बात हमने पूर्व में बतलायी है कि उन अशुद्ध पर्यायों के अतिरिक्त अन्य कोई द्रव्य ही नहीं, अभी तो वह पूर्ण द्रव्य ही उन पर्यायरूप में व्यक्त हो रहा है, उन पर्यायों से भिन्न कोई शुद्धभाव की सिद्धि हो किस प्रकार ? अर्थात् अगर हो तो वह मात्र भ्रम में ही हो, अन्यथा नहीं। यही बात यहाँ बतलायी है।
गाथा १८६-अन्वयार्थ-'इसलिए शुद्ध तत्त्व (अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप) कहीं इन नौ तत्त्वों से विलक्षण (अर्थात् भिन्न) अर्थान्तररूप नहीं है परन्तु केवल नौ तत्त्व सम्बन्धी विकल्पों को कम करते ही (अर्थात् गौण करते ही) वे नव तत्त्व ही शुद्ध हैं।'