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________________ नव तत्त्व की सच्ची श्रद्धा का स्वरूप नव तत्त्व की सच्ची श्रद्धा का स्वरूप पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध की गाथाएँ गाथा १३३-१३४-१३५ - वास्तव में यहाँ शुद्धनय की अपेक्षा से जीव शुद्ध भी है (अर्थात् एकान्त शुद्ध नहीं अथवा तो उसका एक भाग शुद्ध और एक अशुद्ध ऐसा भी नहीं, परन्तु अपेक्षा से जीव शुद्ध भी है) तथा कथंचित् बद्धाबद्ध नय अर्थात् व्यवहारनय से जीव अशुद्ध है, यह भी असिद्ध नहीं (अर्थात् व्यवहारनय से जीव अशुद्ध है)। सम्पूर्ण शुद्धनय, एक, अभेद और निर्विकल्प है अथवा व्यवहारनय अनेक, भेदरूप और सविकल्प है। वह शुद्धनय का विषय चेतनात्मक शुद्ध जीव वाच्य है और व्यवहारनय के विषयरूप वह जीव आदि नौ पदार्थ कहने में आये हैं।' हम प्रारम्भ में ही जो समझे हैं कि वस्तु एक अभेद है और उसे देखने की दृष्टि अनुसार वही वस्तु शुद्ध अथवा अशुद्ध, अभेद अथवा भेदरूप ज्ञात होती है, वही बात यहाँ सिद्ध की गयी है। अब समयसार गाथा १३ के जो भाव हैं कि 'नव तत्त्व में छुपी हुई आत्म(-चैतन्य) ज्योति' वही भाव व्यक्त करते हैं। गाथा १५५-अन्वयार्थ-‘अर्थात् एक जीव ही जीव-अजीव आदिक नौ पदार्थरूप होकर विराजमान है और इन नौ पदार्थों की अवस्थाओं में भी यदि विशेष अवस्थाओं की विवक्षा न की जाये तो (अर्थात् विशेषरूप विभावभावों को यदि गौण किया जाये तो) केवल शुद्ध जीव ही है (केवल परमपारिणामिक भावरूप शुद्धात्मा ही है अर्थात् वह केवल कारणशुद्ध पर्यायरूप दृष्टि का विषय ही है अर्थात् वह विशेष अवस्थाएँ - पर्यायें परमपारिणामिकभाव की ही बनी है, यही बात सिद्ध होती है)।' गाथा १६०-१६३-'सौपरक्ती से उपाधि सहित स्वर्ण त्याज्य नहीं क्योंकि उसका त्याग करने पर सर्व शून्यतादि दोषों का प्रसंग आता है (उसी प्रकार यदि अशुद्धरूप परिणमित जीव अर्थात् अशुद्ध पर्याय का यदि त्याग किया जाये तो वहाँ पूर्ण द्रव्य का ही त्याग हो जाने से, सर्व शून्यतादि का दोष आयेगा अर्थात् उस अशुद्ध पर्याय में ही परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा छुपा हुआ होने से यदि उस अशुद्ध पर्याय का त्याग करोगे तो पूर्ण द्रव्य का ही लोप हो जायेगा और इसलिए उस अशद्ध पर्याय का त्याग न करके. मात्र अशद्धि को ही गौण करना और ऐसा करते ही परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा जो कि दृष्टि का विषय है वह उपलब्ध होगा।) (दूसरा) ऐसा कथन भी परीक्षा करने से सिद्ध नहीं हो सकता कि जिस समय सुवर्ण, पर्याय से शुद्ध है उस समय ही वह शुद्ध है (अर्थात् जो अशुद्धतारूप परिणमित संसारी जीवों को एकान्त से अशुद्ध ही मानते
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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