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दृष्टि का विषय
१६ स्वभावपर्याय और विभावपर्याय हमने जो पूर्व में बतलाया कि स्वभावपर्याय और विभावपर्याय, ऐसी दो पर्याय अपेक्षा से कही जाती है अर्थात् दोनों एक ही पर्याय (वस्तु, द्रव्य) का अनुक्रम से सामान्यरूप और विशेषरूप है. परन्त ऐसा नहीं कि स्वभाविकशक्ति और वैभाविकशक्ति एक ही काल में होती है. क्योंकि ऐसा मानने पर, दोनों पर्याय विशेषरूप हो जाने से, एक द्रव्य की एक काल में दो पर्याय का प्रसंग आयेगा और कार्य-कारणभाव के नाश का प्रसंग आयेगा, जिससे बन्ध-मोक्ष के अभाव का प्रसंग आयेगा, वही अब आगे बतलाते हैं।
पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध की गाथा :__गाथा ९२-अन्वयार्थ-'यह स्वाभाविकी और वैभाविकी शक्ति का एक काल में सद्भाव मानने पर न्याय से भी बहुत बड़ा दोष आयेगा, क्योंकि युगपत् स्वाभाविक और वैभाविक भाव को मानने से कार्य-कारणभाव का नाश तथा बन्ध-मोक्ष के नाश होने का प्रसंग आता है।'
भावार्थ-'वैभाविकीशक्ति की विभाव और स्वभावरूप दो अवस्था मानने से बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था सिद्ध हो जाती है तथा वह विभाव और स्वभाव अवस्थायें क्रमवर्ती हैं, इसलिए बन्ध और मोक्ष के कार्य-कारणभाव अलग-अलग हैं - ऐसा भी सिद्ध होता है परन्तु दोनों शक्तियों को युगपत् मानने से न तो कार्यकारणभाव बन सकेगा तथा न तो बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था ही बन सकेगी।'
हम जो पूर्व में देख गये हैं, वही यहाँ बतलाया है कि यदि छद्मस्थ जीव में स्वभावपर्याय और विभावपर्याय ऐसी दो पर्याय मानने में आवे तो जो कार्य-कारणरूप व्यवस्था है वह सिद्ध ही नहीं होगी अर्थात् जिस आत्मा में प्रत्येक प्रदेश में कर्म हैं और उनके निमित्त से वह अशुद्धतारूप परिणमता है, ऐसा कार्य-कारणभाव और उन कर्मों का अभाव होते ही वह जीव शुद्धरूप परिणमता है, वैसा बन्ध और मोक्ष भी सिद्ध नहीं होगा। इसलिए छद्मस्थ जीव में विशेषरूप विभावपरिणमन
और सामान्यरूप स्वभावपरिणमन ही मानने योग्य है जो कि सामान्यरूप स्वभावपरिणमन के बल से वह जीव कर्मों के निमित्त से होते भाव में मैंपना' से छूटकर अर्थात् उनमें 'मैंपना' नहीं करके मात्र परमपारिणामिकभाव में ही 'मैंपना' करता है और उन विभावरूप भावों को क्षणिक और हेयरूप मानकर कर्मों के नाश के लिये शक्ति प्राप्त करता है और आगे वैसा ही पुरुषार्थ बारम्बार करके सर्व कर्मों का नाश करके, वैसे भावों से सर्वथा, सर्व काल के लिए छूटता है, मुक्त होता है; यही मोक्ष है।