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________________ दृष्टि का विषय निकाल देना नहीं पड़ता, वह अपने आप ही मिट्टीत्व में अंतर्भूत हो जाता है, अत्यन्त गौण हो जाता है और यही विधि है त्रिकाली ध्रुव द्रव्य को द्रव्यदृष्टि से निहारने की ; अन्य विधि नहीं। यही आगे बताते हैं। 40 गाथा २२५ - अन्वयार्थ - 'परन्तु वृक्ष में फल, फूल तथा पत्र की भाँति कोई अंशरूप एक भाग से सत् का उत्पाद अथवा संहार अर्थात् व्यय तथा ध्रौव्य नहीं है । ' अर्थात् वास्तव में द्रव्य में ध्रुव और पर्याय ऐसे दो भाग नहीं हैं और उनके क्षेत्र भेद (भिन्न प्रदेश) भी नहीं है परन्तु एक ही वस्तु को अपेक्षा से भेदनय से ऐसा कहा जाता है। भावार्थ - ‘परन्तु जिस प्रकार वृक्ष में फूल, फल तथा पत्र इत्यादि भिन्न-भिन्न अंशों से रहते हैं और वह वृक्ष भी उनके संयोग से फल, फूल, पत्रादिवाला कहने में आता है, उस प्रकार सत् के किसी एक अंश से अलग उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य नहीं है तथा न तो अलग-अलग अंशात्मक उत्पादव्यय- ध्रौव्य से, द्रव्य उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यवाला ही कहा जाता है। इसलिए शंकाकार का 'उत्पादव्यय को अंशात्मक मानना और ध्रौव्य को अंशात्मक न मानना' यह कथन (शंका) ठीक नहीं है। ' अब शंकाकार शंका करता है कि उत्पादादिक तीनों अंशों के होते हैं या अंशी के (द्रव्य के=सत् के) होते हैं? तथा ये तीनों सतात्मक अंश हैं या भिन्न असतात्मक अंश हैं ? उसका समाधान देते हैं गाथा २२७ - अन्वयार्थ - 'ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि जैन सिद्धान्त में निश्चय से अनेकान्त ही बलवान है परन्तु सर्वथा एकान्त बलवान नहीं है इसलिए अनेकान्तपूर्वक समस्त ही कथन अविरुद्ध होते हैं तथा अनेकान्त के बिना समस्त कथन विरुद्ध हो जाते हैं। ' अर्थात् कभी किसी ने मात्र शब्दों को पकड़कर एकान्त अर्थ नहीं निकालना चाहिए क्योंकि जैन सिद्धान्त में प्रत्येक शब्द - प्रत्येक वाक्य किसी न किसी अपेक्षा के बिना नहीं होता इसलिए उन शब्दों अथवा वाक्यों को उस-उस अपेक्षानुसार समझकर ग्रहण करना आवश्यक है, एकान्त ग्रहण नहीं करके, अनेकान्तस्वरूप जैन सिद्धान्त अनुसार ही अर्थ समझना योग्य है, अन्यथा का दोष से मिथ्यात्व का दोष अवश्य ही आता है जो कि अनन्त भव भ्रमण बढ़ाने के लिए शक्तिमान है और इसीलिए एकान्त ग्रहण और एकान्त के आग्रह से बचकर प्रस्तुत किसी भी विधान को अनेकान्तस्वरूप समझाये अनुसार ग्रहण करके शीघ्रता से संसार से मुक्त होना योग्य है अर्थात् शीघ्रता से मोक्षमार्ग पर चलने के लिए अनेकान्त ही सहायभूत होने योग्य है। गाथा २२८ - अन्वयार्थ - 'यहाँ केवल अंशों के न उत्पाद तथा न व्यय तथा न ध्रौव्य
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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