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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ
गाथा २२१ - अन्वयार्थ 'अथवा जिस समय यहाँ व्ययरूप से परिणत वह सत् केवल व्यय द्वारा निश्चयरूप से लक्ष्यमान होता है, उस समय वही सत् निश्चय से केवल व्ययमात्र क्या नहीं होगा? अवश्य होगा।'
गाथा २२२ - अन्वयार्थ - ' अथवा जिस समय ध्रौव्यरूप से परिणत सत् (केवल ) ध्रौव्य द्वारा लक्ष्यमान होता है, उस समय उत्पाद - व्यय की भाँति वही का वही सत् ध्रौव्यमात्र है, ऐसा प्रतीत होता
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अर्थात् पूर्व में बताये अनुसार द्रव्यार्थिक चक्षुवाले को जहाँ प्रमाणरूप द्रव्य, मात्र सामान्यरूप ही ज्ञात होता है अर्थात् ध्रुवरूप ही ज्ञात होता है, वहाँ पर्यायार्थिक चक्षुवाले को वही प्रमाणरूप द्रव्य मात्र पर्यायरूप ही ज्ञात होता है अर्थात् उत्पाद - व्ययरूप ही ज्ञात होता है और प्रमाण चक्षु से देखने में आने पर वही प्रमाणरूप द्रव्य, उभयरूप अर्थात् द्रव्य-पर्यायरूप ज्ञात होता है अर्थात् उत्पाद-व्यय-१ - ध्रौव्यरूप ज्ञात होता है; इसलिए समझना यह है कि जैन सिद्धान्त में प्रत्येक कथन विवक्षावश ही अर्थात् अपेक्षा से ही कहा जाता है, नहीं कि एकान्त से; इसलिए जब ऐसा प्रश्न होता है कि पर्याय किसकी बनी है ? और उत्तर- द्रव्य की = ध्रौव्य की, ऐसा दिया जाय तो जैन सिद्धान्त नहीं समझनेवालों को लगता है कि ये पर्याय में द्रव्य कहाँ से आ गया ? अरे भाई ! पर्याय है वह द्रव्य का ही वर्तमान है और कोई भी वर्तमान उस द्रव्य का ही बना हुआ होगा न ? ऐसा है जैन सिद्धान्त अनुसार त्रिकाली ध्रुव वस्तु का स्वरूप, अन्यथा नहीं; अन्यथा लेने पर वह जिनमत बाह्य है । दृष्टान्त
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गाथा २२३ - अन्वयार्थ - 'इस विषय में उदाहरण यह है कि - यहाँ मिट्टीरूप द्रव्य, सतात्मक घट द्वारा लक्ष्यमान होता हुआ केवल घटरूप ही कहने में आता है तथा वहाँ ही असतात्मक पिण्डरूप द्वारा लक्ष्यमान होता हुआ केवल पिण्डरूप ही कहने में आता है।' और अब मिट्टीरूप (ध्रुवरूप) कहते है।
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गाथा २२४ अन्वयार्थ - ‘अथवा वह मिट्टीरूप द्रव्य अगर यहाँ केवल मृतिकापने से लक्ष्यमान होता है वह मिट्टी ही कहने में आता है, इस प्रकार एक सत् के ही उत्पादादिक तीनों इस सत् में अंश है । '
इस प्रकार एक अभेद सत्रूप वस्तु को अलग-अलग विवक्षाओं से देखने पर वह पूर्ण वस्तु ही उस स्वरूप कही जाती है, जैसे कि घट को मात्र मिट्टीरूप अर्थात् त्रिकाली ध्रुवरूप देखने से वह पूर्ण वस्तु (घट) मात्र मिट्टीरूप ही ज्ञात होती है, अर्थात् उसमें से घटत्व अथवा पिण्डत्व