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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ
भी है, इसलिए वे नित्य और अनित्यरूप होने से भले प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक भी है।'
भावार्थ - ‘अनादि सन्तानरूप से जो द्रव्य के साथ अनुगमन करता है वह गुण है। यहाँ 'अनादि' इस विशेषण से स्वयंसिद्ध, सन्तानरूप' इस विशेषण से परिणमनशील तथा अनुगतार्थ इस विशेष से निरन्तर द्रव्य के साथ रहनेवाले, ऐसा अर्थ सिद्ध होता है। सारांश यह है कि प्रत्येक द्रव्य के गुण स्वयंसिद्ध और निरन्तर द्रव्य के साथ रहनेवाले हैं इसलिए तो उन्हें नित्य अर्थात् ध्रौव्यात्मक कहने में आता है और प्रतिसमय परिणमनशील हैं, इसलिए उन्हें अनित्य और उत्पादव्ययात्मक कहने में आता है। इस प्रकार सम्पर्ण गण उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यात्मक है।' ऐसी है जैन सिद्धान्त की वस्तु व्यवस्था।
गाथा १७८ - अन्वयार्थ – 'सारांश यह है कि जैसे द्रव्य नियम से स्वत:सिद्ध है, उसी प्रकार वह परिणमनशील भी है, इसलिए वह द्रव्य प्रतिसमय बारम्बार प्रदीप (दीपक) की शिखा की भाँति परिणमन करता ही रहता है।'
भावार्थ - ‘अर्थात्-जैसे द्रव्य, स्वत:सिद्ध होने से नित्य-अनादि-अनन्त है, उसी अनुसार वह परिणमनशील होने से प्रदीप शिखा की (दीपक की) भाँति प्रतिसमय सदृश परिणमन भी करता ही रहता है। इसलिए वह अनित्य भी है और उसका वह परिणमन पूर्व-पूर्व भाव के विनाशपूर्वक (मिट्टी के पिण्ड के विनाशपूर्वक) तथा उत्तर-उत्तरभाव के उत्पाद से (मिट्टी के घट के उत्पाद से) होता रहता है इसलिए द्रव्य, कथंचित् नित्य-अनित्यात्मक कहने में आता है। (एक ही वस्तु के दो स्वभाव हैं, नहीं कि एक वस्तु के दो भाग-एक नित्य और दूसरा अनित्य-ऐसा भागरूप मानने से मिथ्यात्व का दोष आता है) जैसे कि जीव मनुष्य से देव पर्याय को प्राप्त करने पर द्रव्यार्थिकदृष्टि से उसकी प्रत्येक पर्यायों में जीवत्व सदृश (समान) रहने पर भी (अर्थात् उस पर्याय का सामान्य, वही जीवत्व अर्थात् द्रव्य) पर्यायार्थिकदृष्टि से प्रत्येक पर्यायों में (उसकी एकएक पर्यायों में) वह कथंचित् भिन्नता को धारण करता है। उसी प्रकार प्रति समय होनेवाले क्रम में भी द्रव्यार्थिकनय से सदृशता रहने पर भी (अर्थात् उस क्रमरूप पर्याय में सामान्यभावरूप से द्रव्य हाजिर ही है) परन्तु पर्यायार्थिकनय से कथंचित् विसदृशपना (अन्यथापना) भी देखने में आता है (अर्थात् उस क्रम में होती पर्याय में विशेष भावरूप से अन्य-अन्य भाव देखने में आते हैं)। इस विषय में दूसरा दृष्टान्त गोरस का भी दिया जाता है-जैसे दूध, दही, मट्ठा इत्यादि दूध की अवस्थाओं में द्रव्यार्थिकनय से गोरसपने की सदृशता रहने पर भी पर्यायार्थिकनय से दूध से दही इत्यादि अवस्थाओं में कथंचित् विसदृशपना भी देखने में आता है। इस प्रकार अनुमान से अथवा स्वानुभव प्रत्यक्ष से नित्य-अनित्य की प्रतीति होने से यद्यपि क्रम में भी कथंचित् सदृशता