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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ
उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य हुआ करते हैं परन्तु केवल सत् में नहीं, इसलिए (भेदनय से) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य को सत् के परिणाम कहने में आता है; यदि ऐसा न मानकर सत् में ही उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्य मानने में आवे तो असत् की उत्पत्ति तथा सत् के विनाश का दुर्निवार (निवारण न किया जा सके ऐसा ) प्रसंग आयेगा । '
गाथा ९९ अन्वयार्थ - 'इसलिए नियम से द्रव्य कथंचित् किसी अवस्थारूप से उत्पन्न होता है तथा किसी अन्य अवस्था से नष्ट होता है परन्तु परमार्थरूप से (द्रव्यार्थिकनय से ) निश्चय से वे दोनों ही नहीं हैं अर्थात् द्रव्य न तो उत्पन्न होता है तथा न नष्ट होता है । '
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अर्थात् द्रव्यदृष्टि से तो वह नित्य त्रिकाली ध्रुवरूप ही ज्ञात होता है, उसमें कोई उत्पादव्यय ज्ञात होते ही नहीं क्योंकि उन पर दृष्टि ही नहीं, दृष्टि केवल त्रिकाली ध्रुव द्रव्य पर ही है इसलिए उत्पाद-व्यय गौण हो जाते हैं और नित्यत्व मुख्य हो जाता है, यही विधि है पर्याय के अभाव की ।
भावार्थ - 'इसलिए द्रव्य द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से नवीन-नवीन अवस्थारूप से उत्पन्न तथा पूर्व-पूर्व अवस्थाओं से नष्ट कहने में आता है, परन्तु द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य, न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है।' इस भाव को अपेक्षा से ध्रुवभाव, अपरिणामी भाव भी कहा जा सकता है परन्तु एकान्त से नहीं ।
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गाथा १०८ - अन्वयार्थ - 'जैन का यह सिद्धान्त है कि जैसे द्रव्य नित्य - अनित्यात्मक है, उसी प्रकार गुण भी अपने द्रव्य से अभिन्न होने के कारण नित्य-अनित्यात्मक है - ऐसा समझना । ' .. द्रव्यदृष्टि से वे गुण परस्पर में तथा द्रव्य से अभिन्न ही है.. '
भावार्थ:
गाथा ११० अन्वयार्थ - 'जैसे ज्ञान, घट के आकार से पट के आकाररूप होने के कारण परिणमनशील है तो क्या उसका ज्ञानपना नष्ट हो जाता है ? यदि वह ज्ञानत्व नष्ट नहीं होता, तो इस अपेक्षा से नित्य क्यों सिद्ध नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य ही (नित्य सिद्ध) होगा । '
यहाँ समझना यह है कि कोई ऐसा कहे कि ज्ञानगुण तो अकबन्ध-कूटस्थ - अपरिणामी रहता है और उसमें से ज्ञान की पर्याय निकलती है, तो ऐसी मान्यता से तो ज्ञानगुण का ही अभाव हो जायेगा क्योंकि ज्ञानगुण परिणमनशील है, अर्थात् ज्ञानगुण स्वयं किसी न किसी कार्य बिना रहता ही नहीं, वह ज्ञानगुण स्वयं ही उस कार्यरूप परिणमता है, अर्थात् स्व-पर को जाननेरूप परिणमता है और उस स्व - पररूप प्रतिबिम्ब को गौण करते ही सामान्यपने से ज्ञानगुण ऐसा का ऐसा ही ज्ञात होता है, इसलिए कहा जाता है कि वह ज्ञानपने का उल्लंघन करता ही नहीं, इस अपेक्षा से उसे कूटस्थ अथवा अपरिणामी कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं।