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दृष्टि का विषय
ही बना है अर्थात् जो पर्याय है, वह द्रव्य की ही बनी है, क्योंकि वह द्रव्य का ही वर्तमान है। इसलिए ही उसे द्रव्यदृष्टि से देखने पर, वहाँ मात्र द्रव्य ही ज्ञात होता है - त्रिकाली ध्रुव ही ज्ञात होता है, वहाँ उसकी वर्तमान अवस्था (पर्याय) गौण हो जाती है और उसे ही द्रव्यदृष्टि कहा जाता है। जब कि पर्यायदृष्टि में, उसी द्रव्य को उसकी वर्तमान अवस्था से अर्थात् पर्याय से ही देखने में आने पर द्रव्य गौण हो जाता है, द्रव्य ज्ञात ही नहीं होता, पूर्ण द्रव्य मात्र पर्यायरूप ही भासित होता है। ऐसी ही मुख्य-गौण की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त दूसरी कोई अभाव की व्यवस्था ही नहीं है, क्योंकि अखण्ड-अभेद द्रव्य में किसी भी अंश का अभाव चाहने पर पूर्ण द्रव्य का ही अभाव हो जाता है-लोप हो जाता है। इसलिए अभाव अर्थात् मुख्य-गौण, अन्यथा नहीं।
गाथा ८९- अन्वयार्थ – 'जैसे वस्तु स्वत:सिद्ध है उसी प्रकार वह स्वतः परिणमनशील भी है इसलिए यहाँ वह सत् नियम से उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्यस्वरूप है।'
भावार्थ - 'जैनदर्शन में जैसे वस्तु का सद्भाव स्वत:सिद्ध माना है (अर्थात् उस वस्तु का कभी नाश नहीं होता और इस अपेक्षा से वह ध्रुव है - नित्य है) इसी प्रकार उसे परिणमनशील भी माना है (अर्थात् द्रव्य स्वयं ही पर्यायरूप परिणमता है), इसीलिए सत् स्वयं ही नियम से उत्पादस्थिति भंगमय है (अर्थात् मिट्टी स्वयं ही पिण्डपना छोड़कर घटरूप होती है)। अर्थात् सत् स्वयं सिद्ध होने से ध्रौव्यमय और परिणमनशील होने से उत्पाद-व्ययमय है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु त्रितयात्मक (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमय) है।'
इसलिए कोई ऐसा कहे कि यदि द्रव्य को ही परिणामरूप मानने में आवे तो परिणाम के नाश से द्रव्य का भी नाश हो जायेगा, तो ऐसा नहीं है, क्योंकि उत्पाद-व्यय वह द्रव्य का नहीं परन्तु द्रव्य की अवस्था का है अर्थात् वह द्रव्य ही स्वयं पिण्डपना छोड़कर घटपना धारण करता है और वहाँ पिण्ड का व्यय और घट का उत्पाद कहा जाता है, परन्तु उन दोनों में रही हुई मिट्टीपने का नाश किसी काल में नहीं होता और इसीलिए उसे त्रिकाली ध्रुव अथवा अपरिणामी कहा जाता है; नहीं कि अन्य किसी प्रकार से।
गाथा ९० - अन्वयार्थ - ‘परन्तु वह सत् भी परिणाम बिना उत्पाद, स्थिति, भंगरूप नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने से जगत में असत् का जन्म (आकाश के फूल का जन्म) और सत् का विनाश (वृक्ष के फूल का विनाश) दुर्निवार हो जायेगा।'
भावार्थ - ‘सत्, केवल स्वत:सिद्ध और परिणमनशील होने के कारण से ही उत्पाद, स्थिति तथा भंगमय मानने में आया है, अर्थात् ये तीनों अवस्थायें हैं क्योंकि प्रतिसमय सत् की अवस्थाओं