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नित्य चिन्तन कणिकाएँ
पूर्वाग्रह, अथवा पक्ष होना ही नहीं चाहिए क्योंकि वह आत्मा के लिये अनन्त काल की बेड़ी समान है अर्थात् वह आत्मा को अनन्त काल भटकानेवाला है। आत्मार्थी के लिये अच्छा वह मेरा और सच्चा वह मेरा होना अति आवश्यक है, कि जिससे वह आत्मार्थी अपनी मिथ्या मान्यताओं का त्याग करके सत्य को सरलता ग्रहण कर सके और वही उसकी योग्यता कहलाती है।
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• आत्मार्थी को दम्भ से हमेशा दूर ही रहना चाहिए अर्थात् उसे मन-वचन और काया की एकता साधने का अभ्यास निरन्तर करते ही रहना चाहिए और उसमें अड़चनरूप संसार से बचते रहना चाहिए ।
• आत्मार्थी को एक ही बात ध्यान में रखनेयोग्य है कि यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन है और यदि इस मनुष्यभव में मैंने आत्म प्राप्ति नहीं की तो अब अनन्त, अनन्त, अनन्त... काल के बाद भी मनुष्य जन्म, पूर्ण इन्द्रियों की प्राप्ति, आर्यदेश, उच्चकुल, धर्म की प्राप्ति, धर्म की देशना इत्यादि मिले, ऐसा नहीं है परन्तु अनन्त, अनन्त, अनन्त... कालपर्यन्त अनन्त, अनन्त, अनन्त... दुःख ही प्राप्त होंगे। इसलिए यह अमूल्य दुर्लभ मनुष्य जन्म मात्र शारीरिक - इन्द्रियजन्य सुख और उसकी प्राप्ति के पीछे खर्च करने योग्य नहीं है, परन्तु उसके एक भी पल को व्यर्थ न गँवाकर मात्र और मात्र शीघ्रता से शाश्वत सुख ऐसे आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिये ही लगाना योग्य है ।