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दृष्टि का विषय
साधक को विवाह बहुत जरूरी हो तो ही करना और वह भी सादगी से। दूसरा, यहाँ बतलाये अनुसार विवाह को मजबूरी समझकर किसी ने विवाह दिवस इत्यादि का महोत्सव करनेयोग्य नहीं अर्थात् उस दिन विशेष धर्म करनेयोग्य है। और ऐसी भावना भाओ कि अब मुझे यह विवाहरूप मजबूरी भविष्य में कभी न होओ! जिससे मैं शीघ्रता
से आत्मकल्याण कर सकूँ और सिद्धत्व प्राप्त कर सकूँ। • जन्म, वह आत्मा को अनादि का लगा हुआ भवरोग है, नहीं कि महोत्सव क्योंकि जिसे
जन्म है, उसे मरण अवश्य है और जन्म-मरण का दुःख अनन्त होता है। इसलिए जब तक आत्मा की जन्म-मरणरूप चक्रवात चलता है, तब तक इसे अनन्त दुःखों से छुटकारा नहीं मिलता अर्थात् प्रत्येक को एकमात्र सिद्धत्व अर्थात् जन्म-मरण से सदा के लिए छुटकारा इच्छनेयोग्य है। इसलिए ऐसे जन्म के महोत्सव नहीं होते क्योंकि कोई अपने रोग को उत्सव बनाकर महोत्सव करते ज्ञात नहीं होता। इसलिए साधक को यहाँ बतलाये अनुसार जन्म को अनन्त दु:ख का कारण ऐसा भवरोग समझकर जन्म-दिवस इत्यादि का महोत्सव करनेयोग्य नहीं है। अर्थात् उस दिन विशेष धर्म करनेयोग्य है। और ऐसी भावना भाओ कि अब मुझे यह जन्म, जो कि अनन्त दु:खों का कारण ऐसा भवरोग है, वह भविष्य में कभी भी न होओ! अर्थात् साधक को एकमात्र सिद्धत्व की प्राप्ति
के लिए अर्थात् अजन्मा बनने के लिए ही सर्व पुरुषार्थ लगानेयोग्य है। • अनादि से पुद्गल के मोह में और उसी की मारामारी में जीव दण्डाता आया है अर्थात्
उसके मोह के फलरूप से वह अनन्त दुःख भोगता आया है। इसलिए शीघ्रता से पुद्गल का मोह छोड़नेयोग्य है। वह मात्र शब्द में नहीं, जैसे कि धर्म की ऊँची-ऊँची बातें करनेवाले भी पुद्गल के मोह में फंसे हुए ज्ञात होते हैं, अर्थात् यह जीव अनादि से इसी प्रकार स्वयं को ठगता आया है। इसीलिए सर्व आत्मार्थियों को हमारी प्रार्थना है कि आप अपने जीवन में अत्यन्त सादगी अपनाकर पुद्गल की आवश्यकता बने उतनी घटाना और आजीवन प्रत्येक प्रकार के परिग्रह की मर्यादा करना अर्थात् सन्तोष रखना परम आवश्यक है कि जिससे स्वयं एकमात्र आत्मप्राप्ति के लक्ष्य के लिए ही जीवन जी सके, जिससे वे अपने जीव को अनन्त दुःखों से बचा सकते हैं और अनन्त अव्याबाध
सुख प्राप्त कर सकते हैं। • आत्मार्थी को किसी भी मत-पंथ-सम्प्रदाय-व्यक्ति विशेष का आग्रह, हठाग्रह, कदाग्रह,