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दृष्टि का विषय
• संवर भावना- सच्चे (कार्यकारी) संवर की शुरुआत सम्यग्दर्शन से ही होती है,
इसलिए उसके लक्ष्य से पापों का त्याग करके एकमात्र सच्चे संवर के लक्ष्य से द्रव्यसंवर पालना। • निर्जरा भावना- सच्ची (कार्यकारी) निर्जरा की शुरुआत सम्यग्दर्शन से ही होती है, इसलिए उसके लक्ष्य से पापों का त्याग करके एकमात्र सच्ची निर्जरा के लक्ष्य से
यथाशक्ति तप आचरना। • लोकस्वरूप भावना- प्रथम, लोक का स्वरूप जानना, पश्चात् चिन्तवन करना कि मैं अनादि से इस लोक में सर्व प्रदेशों में अनन्त बार जन्मा और मरण को प्राप्त हआ: अनन्त दुःख भोगे, अब कब तक यह चालू रखना है? अर्थात् इसके अन्त के लिए सम्यग्दर्शन आवश्यक है। अत: उसकी प्राप्ति का उपाय करना। दूसरा, लोक में रहे हुए अनन्त सिद्ध भगवन्त और संख्यात अरहन्त भगवन्त और साधु भगवन्तों की वन्दना करना और असंख्यात श्रावक-श्राविकाओं तथा सम्यग्दृष्टि जीवों की अनुमोदना करना, प्रमोद करना। • बोधिदुर्लभ भावना- बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन। अनादि से अपनी भटकन का यदि
कोई कारण होवे तो वह है सम्यग्दर्शन का अभाव; इसलिए समझ में आता है कि सम्यग्दर्शन कितना दुर्लभ है, कोई आचार्य भगवन्त ने तो कहा है कि वर्तमान काल में सम्यग्दृष्टि अंगुली के पोर पर गिने जा सकें इतने ही होते हैं। • धर्मस्वरूप भावना-वर्तमान काल में धर्मस्वरूप में बहुत विकृतियाँ प्रवेश कर चुकी
होने से, सत्य धर्म की शोध और उसका ही चिन्तवन करना; सर्व पुरुषार्थ उसे प्राप्त करने में लगाना।