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बारह भावना
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बारह भावना • अनित्य भावना- सर्व संयोग अनित्य हैं, पसन्द या नापसन्द ऐसे वे कोई भी संयोग मेरे
साथ नित्य रहनेवाले नहीं हैं, इसलिए उनका मोह या दुःख त्यागना, उनमें 'मैंपना' और मेरापना त्यागना। • अशरण भावना- मेरे पापों के उदय समय मुझे माता-पिता, पत्नी-पुत्र, पैसा इत्यादि
कोई भी शरण हो सके ऐसा नहीं है। वे मेरा दुःख ले सकें ऐसा नहीं है। इसलिए उनका मोह त्यागना, उनमें मेरापना त्यागना परन्तु कर्तव्य पूरी तरह निभाना। • संसार भावना- संसार अर्थात् संसरण-भटकन और उसमें एक समय के सुख के सामने
अनन्त काल का दुःख मिलता है; अत: ऐसा संसार किसे रुचेगा? अर्थात् नहीं ही रुचेगा
और इसलिए एकमात्र लक्ष्य संसार से छूटने का ही रहना चाहिए। • एकत्व भावना- अनादि से मैं अकेला ही भटकता हूँ, अकेला ही दुःख भोगता हूँ; मरण के समय मेरे साथ कोई भी आनेवाला नहीं है, मेरा कहा जानेवाला शरीर भी नहीं।
अतः मुझे शक्य हो उतना अपने में ही (आत्मा में ही) रहने का प्रयत्न करना। • अन्यत्व भावना- मैं कौन हूँ? यह चिन्तवन करना अर्थात् पूर्व में बतलाये अनुसार पुद्गल और पुद्गल (कर्म) आश्रित भावों से अपने को भिन्न भाना और उसी में 'मैंपना' करना, उसका ही अनुभव करना, उसे ही सम्यग्दर्शन कहा जाता है। वही इस जीवन का
एकमात्र लक्ष्य और कर्तव्य होना चाहिए। • अशुचि भावना- मुझे, मेरे शरीर को सुन्दर बतलाने/सजाने का जो भाव है, और विजातीय के शरीर का आकर्षण है, उस शरीर की चमड़ी को हटाते ही मात्र माँस, खून, पीव, मल, मूत्र इत्यादि ही ज्ञात होते हैं, जो कि अशुचिरूप ही हैं। ऐसा चिन्तवन कर
अपने शरीर का और विजातीय के शरीर का मोह तजना, उसमें मोहित नहीं होना। • आस्रव भावना- पुण्य और पाप ये दोनों मेरे (आत्मा के लिए आस्रव है; इसलिए विवेक द्वारा प्रथम पापों का त्याग करना और एकमात्र आत्मप्राप्ति के लक्ष्य से शुभभाव में रहना कर्तव्य है।