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________________ दृष्टि का विषय हुए विषय को किसी भी शास्त्र के साथ मिलानकर देखो अथवा स्वयं अनुभव करके प्रमाण करके देखो - इन दो के अतिरिक्त अन्य कोई परीक्षण की विधि नहीं है। कोई अपनी धारणा को अनुकूल न होने से हमें तरंग माने, तो उसमें हमारा कुछ नुकसान नहीं है क्योंकि उससे हमारे आनन्द की मस्ती में कुछ भी हीनता आनेवाली नहीं है, परन्तु नुकसान तो मात्र तरंग माननेवाले का ही होनेवाला है। फिर भी आपको ऐसा लगता हो कि आपने धार रखा है, वही सच्चा है तो आपको हम कहते हैं कि आप अपनी धारणा अनुसार आत्मानुभूति कर लो ! तो बहुत अच्छा; और यदि आप अपनी धारणा अनुसार वर्षों तक प्रयत्न करने के बाद भी, भावभासन (तत्त्व का निर्णय) तक भी नहीं पहुँचे हो और तत्त्व की चर्चा तथा वाद-विवाद ही करते रहे हों, तो आप, इस पुस्तक में हमने दर्शाये हुए विषय पर अवश्य विचार करना; यदि आप विचार करोगे तो तत्त्व का निर्णय तो अचूक ही होगा- ऐसा हमें विश्वास है; इसलिए इस पुस्तक में जो विषय बतलाया है, उस पर सबको विचार करने के लिए हमारी विनती है । हम किसी वादविवाद में नहीं पड़ना चाहते; इसलिए जिसे यह बात समझ में न आये अथवा न रुचे, वे हमें माफ करें। ‘मिच्छामि दुक्कडं।’ 2 - इस काल में जैन समाज दो भागों में विभाजित हो गया है; जिसमें से एक विभाग है कि जो मात्र व्यवहारनय को ही मान्य करता है और मात्र उसे ही प्राधान्य देता है तथा मात्र उससे ही मोक्ष मानता है। जबकि दूसरा विभाग ऐसा है कि जो मात्र निश्चयनय को ही मान्य करता है और मात्र उसे ही प्राधान्य देता है तथा मात्र उससे ही मोक्ष मानता है, परन्तु वास्तविक मोक्षमार्ग निश्चय - व्यवहार की योग्य संधि में ही है, कि जो बात कोई विरले ही जानते हैं। जैसा कि पुरुषार्थसिद्धि- - उपाय गाथा ८ में भी कहा है कि 'जो जीव व्यवहारनय और निश्चयनय को वस्तुस्वरूप द्वारा यथार्थरूप से जानकर मध्यस्थ होता है, अर्थात् निश्चयनय और व्यवहारनय के पक्षपातरहित होता है, वही शिष्य उपदेश के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता है। (अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करता है ।) ' जबकि साम्प्रत काल में (वर्तमान काल में) बहुभाग जैन समाज व्यवहारनय को ही प्राधान्य देता है और निश्चयनय की घोर अवगणना करता है अथवा विरोध करता है, जिससे वह समाज जाने-अनजाने भी एकान्त मतरूप परिणमित होता है जिसे भगवान ने पाखण्डी का मत बतलाया है और जैन समाज का दूसरा वर्ग जो कि निश्चयनय को ही प्राधान्य देता है और व्यवहारनय की घोर अवगणना करता है अथवा विरोध करता है, वह समाज भी जाने-अनजाने एकान्त मतरूप परिणमता है, जिसे भी भगवान ने पाखण्डी का मत ही बतलाया हमने इस
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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