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समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन
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पसरा हुआ मोह (अनन्तानुबन्धी चतुष्टयरूप) क्यों नाचता है - यह हमें महा आश्चर्य और खेद है!' अर्थात् आचार्य भगवन्त को अज्ञानी पर परम करुणाभाव वर्तता है, उपजता है।
श्लोक ४४- 'इस अनादि काल के महा अविवेक के नाटक में अथवा नाच में वरणादिमान पुद्गल ही नाचता है (परिणमता है), अन्य कोई नहीं (शुद्धात्मा नहीं) और यह जीव तो (अर्थात् शुद्धात्मा) रागादि पुद्गल विकारों से विलक्षण (भिन्न) शुद्ध चैतन्य धातुमय मूर्ति (अर्थात् ज्ञानघन) है।' अर्थात् ऐसा जीव ही अनुभव करने का है अर्थात् ऐसा जीव ही सम्यग्दर्शन का विषय है।
श्लोक ४५- इस प्रकार ज्ञानरूपी करवत का (अर्थात् तीक्ष्ण बुद्धि से भेदज्ञान करने का) जो बारम्बार अभ्यास (अर्थात् बारम्बार भेदज्ञान का अभ्यास करनेयोग्य है) उसे नचाकर (अर्थात् उससे भेदज्ञान करके) जहाँ जीव और अजीव दोनों प्रगटरूप से भिन्न नहीं हुए (अर्थात् उस भेदज्ञानरूपी करवत् से अर्थात् प्रज्ञाछैनी से जो अजीवरूप कर्म-नोकर्म और उनके लक्ष्य से हुए सर्व भावों से भिन्न स्वयं अर्थात् शुद्धात्मा प्रगट भिन्न है, ऐसा अनुभव होने से अर्थात् अपनी इन अजीवरूप कर्म-नोकर्म और उनके लक्ष्य से हुए सर्व भावों से प्रगट भिन्न अनुभूति होते ही) वहाँ तो ज्ञाताद्रव्य (अर्थात् जाननेवाला शुद्धात्मा) अत्यन्त विकासरूप होती अपनी प्रगट (अर्थात प्रगट अनुभूतिस्वरूप) चिन्मात्र शक्ति से विश्व को व्यापकर (अर्थात् कृतकृत्य होकर अद्वितीय आनन्दरूप परिणमकर और स्व विश्व को व्यापकर) अपने आप ही (अर्थात् सहज) अति वेग से उग्रपने अर्थात् अत्यन्त रूप से प्रकाशित हो उठा (अर्थात् ऐसा सहज सम्यग्दर्शन प्रगट हो गया कि जो स्वात्मानुभूतिरूप सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है)।'
२. कर्ता-कर्म अधिकार : जीव का दूसरा वेष कर्ता-कर्मरूप है। जीव अन्य का कर्ता होता है कि जिसे वह उपादानरूप से परिणमाने को शक्तिमान ही नहीं है अर्थात् सर्व द्रव्य अपने उपादान से ही अपनी परिणति करते हैं अर्थात् अपना कार्य करते हैं - परिणमते हैं, उसमें अन्य द्रव्य निमित्तमात्र ही होते हैं।
दूसरा सम्यग्दर्शन के लिये जो मात्र अपने भाव हों, वही अर्थात् 'स्व' भाव हो उसमें ही 'मैपना' करना होने से और उस सम्यग्दर्शन के विषयरूप 'स्व' भाव, मात्र सामान्यभावरूप ही होने से वह निष्क्रियभाव ही होता है अर्थात सम्यग्दर्शन के विषयरूप 'स्व' भाव में उदयक्षयोपशमरूप कर्ता-कर्म भाव जो कि विशेष भाव हैं, वे न होने से, निमित्त तथा उसके लक्ष्य से हुए विशेष भावों का उसमें निषेध ही होता है अर्थात् निमित्त का ही निषेध होता है, इस कारण से और इस अपेक्षा से भी निमित्त को परम अकर्ता कहा जाता है।