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________________ 150 ३७ दृष्टि का विषय समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन अब हम विस्तार रुचि जीवों के लिये समयसार शास्त्र के सर्व अधिकारों का विहंगावलोकन करेंगे; जिसमें सर्व अधिकारों का मात्र सार ही बतलायेंगे, इसलिए विस्तार रुचि जीवों को उपरोक्त पूर्वरंग में विस्तार से बतलाये भाव अनुसार और सर्व अधिकारों के यहाँ बतलाये सार अनुसार उन सर्व अधिकारों का अभ्यास करना, अन्यथा नहीं अर्थात् स्वच्छन्दता से नहीं क्योंकि स्वच्छन्द अपने अभी तक के अनन्त संसार का कारण है कि जिसे अब फिर कभी भी पोषण नहीं करना, ऐसा हमारा सर्व जनों को नम्र निवेदन है। १. जीव - अजीव अधिकार : यह अधिकार जीव को, अजीवरूप कर्म - नोकर्म और उनके लक्ष्य से होनेवाले अपने विभावभावों से भेदज्ञान कराने के लिये है अर्थात् वे सर्व भाव जैसे कि- रस, गन्ध, स्पर्श, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, कर्म, पर्याप्ति, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, मन-वचन-काया के योग, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणा, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, जीवस्थान इत्यादि जीव को नहीं है, ऐसा कहा है; यहाँ प्रश्न होता है कि वे भाव जीव को क्यों नहीं है ? उत्तर - वे भाव दो प्रकार के हैं, एक तो पुद्गलरूप हैं और दूसरे जीव के विशेष भावरूप हैं; उनमें जो पुद्गलरूप हैं, वे तो जीव से प्रगट भिन्न ही हैं और जो जीव के विशेष भावरूप हैं, उन भावों में ‘मैंपना' करने योग्य न होने से अर्थात् उन सर्व भावों से भिन्न ऐसा 'शुद्धात्मा' वह सम्यग्दर्शन का विषय होने की अपेक्षा से, शुद्धात्मारूप जीवराजा में वे भाव नहीं हैं, ऐसा कहा है। ऐसा सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने के लिये कहा है, अन्यथा नहीं, एकान्त से नहीं; इसलिए जैसा है वैसा समझकर मात्र शुद्धात्मा जो कि इन सर्व भावों से भिन्न है, उसमें ही 'मैंपना' करने पर, स्वात्मानुभूतिपूर्वक सम्यग्दर्शन प्रगट हो सकता है और तत्पश्चात् ही ज्ञान मध्यस्थ होने से अर्थात् प्रमाणरूप होने से ही जीव को जैसा है वैसा जानता है और विवेक से आत्मस्थिरतारूप पुरुषार्थपूर्वक सर्व कर्मों का क्षय करने के प्रति कार्यरत होता है अर्थात् सर्व कर्मों का क्षय करने को व्रत-तपध्यानरूप पुरुषार्थ आदरता है, यही मोक्षमार्ग है अर्थात् यही विधि है मोक्ष प्राप्ति की। श्लोक ४३-‘इस प्रकार पूर्वोक्त भिन्न लक्षण के कारण जीव से अजीव भिन्न है, उसे (अजीव को) अपने आप ही विलसता - परिणमता ज्ञानी पुरुष अनुभव करते हैं, तो भी अज्ञानी को अमर्यादरूप
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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