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दृष्टि का विषय
अर्थात् पूर्व में देखा वैसे पर के लक्ष्य से होनेवाले अपने भाव में ज्ञानी का 'मैंपना' न होने से उन्हें छोड़ता है ऐसा कहा जाता है अर्थात् उन परलक्ष्य से होनेवाले भावों को ज्ञानी अपनी कमजोरी समझता है और कोई भी जीव अपनी कमजोरी को पोषण करना चाहता ही नहीं; इसी प्रकार ज्ञानी भी उन परलक्ष्य से होनेवाले भावों को नहीं चाहता और इसीलिए उनसे छूटने के प्रयत्न आदरता है अर्थात् शक्ति अनुसार चारित्र ग्रहण करता है; ऐसा है जैन सिद्धान्त का अनेकान्तमय ज्ञान ।
गाथा ३६ गाथार्थ-‘ऐसा जाने कि 'मोह के साथ मुझे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, एक उपयोग है वह ही मैं हूँ' (अर्थात् सम्यग्दर्शन के विषय में मोहरूप विभावभाव नहीं होने से, जब ज्ञानी शुद्धात्मा में ही 'मैंपना' करता है तब वह मात्र उतना ही है, उसे किसी विभावभाव के साथ कुछ सम्बन्ध नहीं अर्थात् उसे एकमात्र सामान्य उपयोगरूप ज्ञायकभाव में ही 'मैंपना' होने से, उसका तब मोह के साथ कुछ सम्बन्ध नहीं, एक शुद्धात्मा है, वही मैं हूँ) - ऐसा जो जानना, उसे सिद्धान्त के अथवा स्व-पर के स्वरूप के जाननेवाले मोह से निर्ममत्व कहते हैं।' अर्थात् ज्ञानी को मोह में 'मैंपना' और 'मेरापना' नहीं, इसलिए ज्ञानी को निर्ममत्व है।
गाथा ३८ गाथार्थ- 'दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणमित आत्मा (अर्थात् परमपारिणामिक -भावरूप सहज दर्शन-ज्ञान - चारित्ररूप परिणमन करता भाव जो कि शुद्धात्मा है, उसमें ही 'मैंपना' करता हुआ ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव) ऐसा जानता है कि निश्चय से मैं एक हूँ ( अर्थात् वह अभेद का अनुभव करता है), शुद्ध हूँ ( अर्थात् एकमात्र शुद्धात्मा में ही 'मैंपना' होने से मैं शुद्ध हूँ, ऐसा अनुभवता है), दर्शन ज्ञानमय हूँ ( अर्थात् मात्र जानने-देखनेवाला ही हूँ), सदा अरूपी हूँ (अर्थात् किसी भी रूपी द्रव्य में और उससे होते भावों में 'मैंपना' नहीं होने से अपने को मात्र अरूपी ही अनुभवता है); कोई भी अन्य परद्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, यह निश्चय है।'
श्लोक ३२-‘यह ज्ञान समुद्र भगवान आत्मा (अर्थात् ज्ञानमात्र शुद्धात्मा) विभ्रमरूपी आड़ी चादर को समूलतया डुबोकर (अर्थात् शुद्धनय से सर्व विभावभावों को अत्यन्त गौण करके, पर्याय को द्रव्य में अन्तर्गत कर लेता है अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शुद्धात्मा में ही दृष्टि करके) स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है (अर्थात् ऐसा शुद्धात्मा का अनुभव हुआ है); अब यह समस्त लोक (अर्थात् समस्त विकल्परूप लोक - विभावरूप लोक ) उसके शान्तरस में (अर्थात् अतीन्द्रिय आनन्दरूप अनुभूति में) एक साथ ही अत्यन्त मग्न होओ (अर्थात् अपने को निर्विकल्प अनुभवता है वह) कैसा है शान्तरस (अर्थात् अतीन्द्रिय आनन्द ) ? समस्त लोकपर्यन्त उछल रहा है (अर्थात् अमाप,