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समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
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आत्मा को निश्चल स्थापित कर (अर्थात् उस शुद्धात्मा का निश्चल-एकाग्ररूप से ध्यान करके) 'सदा सर्व ओर एक ज्ञानघन आत्मा है' ऐसा देखना।' अर्थात् जो शुद्धात्मा है उसे ज्ञान अपेक्षा से ज्ञानघन, ज्ञानमात्र, ज्ञान सामान्य इत्यादि अनेक नामों से पहिचाना जाता है, यहाँ विशेष इतना ही है कि जिस गुण से शुद्धात्मा को देखने में आता है, उस गुणमय ही पूर्णरूप से शुद्धात्मा ज्ञात होता है अर्थात् शुद्धात्मा में कोई भेद ही नहीं है।
गाथा १५ गाथार्थ-‘जो पुरुष आत्मा को अबद्धस्पृष्ट (अर्थात् किसी भी प्रकार के बन्धरहित शुद्ध और जिसमें सर्वविभावभाव अत्यन्त गौण हो गये होने से, विभावभाव से नहीं स्पर्शित ऐसा कि जिसे सम्यक् एकान्तरूप भी कहा जाता है ऐसा), अनन्य (वह स्वयं निरन्तर अपने रूप में ही परिणमता होने से अन्यरूप नहीं होता अर्थात् उसके सर्व गुणों का सहज परिणमनयुक्त परमपारिणामिक -भावरूप), अविशेष (अर्थात् सर्व विशेष जिसमें गौण हो गये होने से, मात्र सामान्यरूप अर्थात् जो औदयिक आदि चार भाव हैं, वे विशेष हैं परन्तु यह परमपारिणामिकभावरूप पंचम भाव सामान्यभावरूप होने से विशेष रहित होता है। जैसे हमने पूर्व में देखा वैसे। वे विशेष भाव सामान्य के ही बने हुए होते हैं अर्थात् जीव एक पारिणामिकभावरूप ही होता है, परन्तु विशेष में जो कर्म के उदय निमित्त से भाव होते हैं, उस अपेक्षा से वह पारिणामिकभाव ही औदयिक इत्यादि नाम पाता है और उन औदयिकादि भावों का सामान्य अर्थात् परमपारिणामिकभाव में अभाव होने से उसे अविशेष) देखता है वह सर्व जिनशासन को देखता है (अर्थात् जिसने एक आत्मा जाना, उसने सर्व जाना) - कि जो जिनशासन बाह्य द्रव्यश्रुत तथा अभ्यन्तर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला है।'
___ गाथा १७-१८ गाथार्थ- जैसे कोई धन का अर्थी पुरुष (उसी प्रकार कोई आत्मा का अर्थी पुरुष) राजा को जानकर श्रद्धा करता है (अर्थात् जीव राजारूप शुद्धात्मा को जानकर श्रद्धा करता है), तत्पश्चात् उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है (अर्थात् उस शुद्धात्मा का प्रयत्नपूर्वक अनुभव करने का पुरुषार्थ करता है) अर्थात् सुन्दर रीति से सेवा करता है (अर्थात् उसी का बारम्बार मनन-चिन्तन-ध्यान-अनुभवन करता है), इसी प्रकार मोक्ष की इच्छावाले को जीवरूपी राजा को जानना, पश्चात् उसी प्रकार उसका श्रद्धान करना और तत्पश्चात् उसका अनुसरण करना अर्थात् अनुभव द्वारा तन्मय हो जाना।'
गाथा ३५ गाथार्थ-'जैसे लोक में कोई पुरुष परवस्तु को यह परवस्तु है' ऐसा जाने तब ऐसा जानकर परवस्तु को त्यागता है; उसी प्रकार ज्ञानी सर्व परद्रव्यों के भावों को ये परभाव हैं' ऐसा जानकर उन्हें छोड़ता है।'