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दृष्टि का विषय
जिसे गौण करते ही शुद्धात्मा ज्ञात होता है अर्थात् सर्व विशेष भाव साधनरूप हैं और उन्हें गौण करते ही, वे जिसके बने हुए हैं वह परमपारिणामिकभाव साध्यरूप है। यह विधि है सम्यग्दर्शन की। क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है अर्थात् प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है अर्थात् व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है, यही नियम है। आध्यात्मिक शास्त्र भेदज्ञान कराने के लिये विभावभाव को जीव का नहीं है ऐसा कहते हैं क्योंकि उनमें मैंपना' नहीं करना है अर्थात् सम्यग्दर्शन के लिये मात्र ‘शुद्धात्मा' में ही 'मैंपना' करने का होने से इन शास्त्रों में जीव के अन्य भावों को पुद्गल के भाव अर्थात् परभाव कहा है; नहीं कि स्वच्छन्दता से परिणमने के लिये।
अर्थात् आत्मा में राग होता ही नहीं, ऐसा शास्त्र का अभिप्राय ही नहीं है परन्तु उस रागरूप विभावभाव से भेदज्ञान कराने के लिये उसे पुद्गल का बतलाया है। जैन सिद्धान्त का विवेक तो यह है कि 'मैंपना' मात्र शुद्धात्मा में और ज्ञान प्रमाण का अर्थात् अशुद्धरूप परिणमित पूर्ण आत्मा का और ऐसा विवेक करके, वह मुमुक्षु वैसे रागरूप उदयभाव से हमेशा के लिये मुक्त होने का प्रयत्न (पुरुषार्थ) आदरता है, नहीं कि वे मेरे नहीं, मैं करता नहीं इत्यादि कहकर उन्हें पोषण करने का स्वच्छन्द आचरता है।
ऐसी है विपरीत समझ की करुणा, अर्थात् विभावभाव ज्ञानी अथवा मुमुक्षु जीव को एक समय भी सहन करने जैसा नहीं लगता क्योंकि वह भाव तो आत्मा को (अर्थात् मुझे) बन्धनरूप है, दुःखरूप है; इसलिए ऐसे भाव का पोषण तो कोई (ज्ञानी अथवा मुमुक्षु कोई) भी नहीं करे; अर्थात् जो स्वच्छन्दता से ऐसे भावों का पोषण करते हैं, वे अपना परम अहित ही कर रहे हैं और वे शास्त्रों का मर्म ही समझे नहीं हैं ऐसा अत्यन्त अफसोससह-करुणासह कहना आवश्यक ही है।
हमने यहाँ तक जो शुद्धात्मा का वर्णन किया, वही हम बारम्बार अनुभवते हैं और उसे ही शब्दों में वर्णन करने का हमने प्रयत्न किया है, कि जो शक्य ही नहीं क्योंकि उसे शब्दों में भगवान भी नहीं कह सकते। इसलिए हम आपसे निवेदन करते हैं कि आप यहाँ तक की हुई स्पष्टता से और आगे समयसार के आधार से विशेष स्पष्टता करनेवाले हैं, उन दोनों का मर्म समझकर आप भी ‘स्वतत्त्व' का अनुभव करके और परमसुख-शान्ति-परमानन्दरूप मुक्ति को प्राप्त करो; बस इसी एकमात्र प्रयोजन से यह सब लिखा है।