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सम्यग्दर्शन और मोक्षमार्ग
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सम्यग्दर्शन और मोक्षमार्ग यहाँ तक जो भाव हमने दृढ़ किये वे यह है कि सम्यग्दर्शन और बाद में मोक्षमार्ग तथा मुक्ति के लिये प्रत्येक को लक्ष्य में लेने योग्य कोई वस्तु हो तो वह है सम्यग्दर्शन का विषय जो कि परमपारिणामिकभावरूप अर्थात् आत्मा के सहज परिणमनरूप शुद्धात्मा है जो कि मुक्ति का कारण होने से कारणसमयसार अथवा कारणशुद्धपर्यायरूप के रूप में भी बतलाया है, उसके बहुत नाम प्रयोग में आते हैं, परन्तु उसमें से शब्द नहीं पकड़कर, एकमात्र शुद्धात्मरूप भाव जैसे कहा है वैसे लक्ष्य में लेना आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना मोक्षमार्ग में प्रवेश ही नहीं। इस कारण से भेदज्ञान कराने को, आध्यात्मिक शास्त्र उसे ‘स्वतत्त्व' रूप आत्मा मानते हैं और बाकी के जो आत्मा के समस्त भाव हैं, उनका आत्मा में 'निषेध' करते हैं। उसे ही 'नेति-नेति' रूप कहा जाता है अर्थात् निश्चयनयरूप निषेध भी कहा जाता है इसलिए ही समयसार अथवा नियमसार जैसे आध्यात्मिक शास्त्रों का प्राण-हार्द मात्र यह शुद्धात्मा ही है और वे शास्त्र भेदज्ञान के शास्त्र हैं. जिससे ममक्ष जीव अपने विभावभाव से भेदज्ञान करके 'शद्धात्मा' का अनभव करे और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करके मोक्षमार्ग में आगे बढ़कर परम्परा से मुक्त हो, यही इस शास्त्र का एकमात्र उद्देश्य है। इसलिए इस शास्त्र को इसी उद्देश्य से अर्थात् इस अपेक्षा से समझना अत्यन्त आवश्यक है, नहीं कि एकान्त से।
जैसे कि ये शास्त्र पढ़कर लोग ऐसा कहने लगते हैं कि मुझमें तो राग है ही नहीं, मैं राग करता ही नहीं, इत्यादि और वे उसके उद्देश्यरूप भेदज्ञान न करके, उसका ही आधार लेकर स्वच्छन्दता सेराग-द्वेषरूपही परिणमे और वह भी किंचित भी अफसोस बिना. इससे बडी करुणता क्या होगी? अर्थात् इससे बड़ा पतन क्या होगा? अर्थात् यह महापतन ही है। क्योंकि जो शास्त्र भेदज्ञान करके मुक्त होने के लिये है, उसे लोग एकान्त से शब्दश: समझकर-जानकर स्वच्छन्दता से परिणमकर, अपने अनन्त संसार का कारण होते है और वे मानते हैं कि हम सबकुछ ही समझ गये, हम अन्य से ऊँचे/बड़े हैं क्योंकि अन्य को तो इस बात की खबर ही नहीं कि आत्मा राग करता ही नहीं, आत्मा में राग है ही नहीं इत्यादि; यह है स्वच्छन्दता से शब्दों को पकड़कर एकान्तरूप परिणमन कि जो समयसार अथवा नियमसार जैसे शास्त्र का प्रयोजन ही नहीं है। अपितु राग, वह आत्मा में जाने की सीढ़ी है, क्योंकि जो राग है वह आत्मा का विशेष भाव है, कि