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नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय
निर्मल स्वभाववाले आत्मा को ध्याता है, वह वास्तव में आत्मवश है (अर्थात् स्ववश है) और उसे (निश्चयपरम) आवश्यक कर्म (जिनवर) कहते हैं।' अर्थात् आत्मध्यान वह परम आवश्यक है।
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श्लोक २४९- 'निर्वाण का कारण ऐसा जो जिनेन्द्र का मार्ग है, उसे इस प्रकार जानकर (अर्थात् जिनेन्द्र कथित निर्वाण का मार्ग यहाँ समझाये अनुसार ही है, अन्यथा नहीं, इसलिए उसे इस प्रकार जानकर) जो निर्वाण सम्पदा को प्राप्त करता है उसे मैं बारम्बार वन्दन करता हूँ।'
श्लोक २५२-‘जिसने निज रस के विस्ताररूपी पूर द्वारा पापों को सर्व ओर से धो डाला है (अर्थात् शुद्धात्मा में पापरूप सर्व विभावभाव अत्यन्त गौण हो अर्थात् ज्ञात ही न होते होने से और उनमें 'मैंपना' भी न होने से ऐसा कहा है), जो सहज समतारस से पूर्ण भरा हुआ होने से पवित्र है (अर्थात् शुद्धात्मा सर्व गुणों के सहज परिणमनरूप परमपारिणामिकभावरूप सहज समतारस से पूर्ण होता है), जो पुराण (अर्थात् शुद्धात्मा सनातन - त्रिकाल शुद्ध) है, जो स्ववश मन सदा सुस्थित है (अर्थात् सम्यग्दर्शनयुक्त को वह भाव सदा लब्धरूप से होता है) और जो शुद्ध सिद्ध है (अर्थात् शुद्धात्मा, सिद्ध भगवान समान शुद्ध है और इसी अपेक्षा से 'सर्व जीव स्वभाव से सिद्धसमान ही हैं' कहा जाता है) ऐसा सहज तेजराशि में मग्न जीव (अर्थात् स्वात्मानुभूतियुक्त जीव) जयवन्त है।'
गाथा १४७ अन्वयार्थ-‘यदि तू (निश्चय परम ) आवश्यक को चाहता है तो तू आत्मस्वभावों में (अर्थात् शुद्धात्मा में) स्थिर भाव करता है, उससे जीव को सामायिक गुण सम्पूर्ण होता है।' अर्थात् जो जीव शुद्धात्मा में ही स्थिर भाव करता है, उसे ही कार्यकारी=सच्ची सामायिक कहा है और उसे ही अपूर्व निर्जरा होती है।
श्लोक २५६-‘आत्मा को अवश्य मात्र सहज - परम आवश्यक को एक को ही, कि जो अघसमूह का (दोषसमूह का) नाशक है और मुक्ति का मूल (कारण) है उसे ही - अतिशयरूप से करना (अर्थात् सहज परम आवश्यक वह कोई शारीरिक अथवा शाब्दिक क्रिया न होने से, मात्र मन की ही क्रिया है अर्थात् अतीन्द्रिय ध्यानरूप होने से अतिशयरूप से करने को कहा है)। (ऐसा करने से) सदा निजरस के फैलाव से पूर्ण भरपूर होने से (अर्थात् शुद्धात्मा में मात्र निजगुणों का सहज परिणमन ही ग्रहण होता है कि जो सम्पूर्ण होने के कारण ) पवित्र और पुराण (सनातनत्रिकाल) ऐसा वह आत्मा वाणी से दूर (वचन अगोचर) ऐसे किसी सहज शाश्वत सुख को (सिद्धों के सुख को) प्राप्त करता है । '
श्लोक २५७-‘स्ववश मुनिन्द्र को (अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रयुक्ति मुनिन्द्र को )