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दृष्टि का विषय
इस सम्यग्दर्शन के विषय को निर्वाण के कारण का कारण कहा गया है) कि जो सहज परमात्मा परमानन्दमय है, सर्वथा ( अर्थात् तीनों काल- एकान्त से) निर्मल ज्ञान का आवास है, निरावरणस्वरूप है और नय-अनय के समूह से ( सुनय और कुनयों के समूह से अर्थात् विकल्पमात्र से) दूर (अर्थात् निर्विकल्प ) है । '
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गाथा १४५ अन्वयार्थ-‘जो द्रव्य-गुण- पर्यायों में (अर्थात् उनके विकल्पों में) मन जोड़ता है, वह भी अन्यवश है; मोहान्धकाररहित श्रमण ऐसा कहते हैं । '
अर्थात् ऊपर बतलाये अनुसार जो निर्विकल्प शुद्धात्मा है, उसमें ही उपयोग लगानेयोग्य है, अन्यथा नहीं। इस अपेक्षा से भेदरूप व्यवहार हेय है, उसका उपयोग वस्तु का स्वरूप समझनेमात्र ही है - जैसे कि द्रव्य-गुण-पर्याय अथवा उत्पाद - व्यय - ध्रुव और अनन्त गुण इत्यादि; परन्तु वे सर्व भेद विकल्परूप होने से और वस्तु का स्वरूप अभेद होने से, भेदरूप व्यवहार से वस्तु जैसी है वैसी समझकर भेद में न रहकर, अभेद में ही रमनेयोग्य है।
यहाँ किसी को विकल्प हो कि दृष्टि का विषय तो पर्याय से रहित द्रव्य है न ?
उत्तर - ऐसा विकल्प करने से वहाँ द्वैत का जन्म होता है अर्थात् एक अभेद द्रव्य में द्रव्य और पर्यायरूप द्वैत का जन्म होने से, अभेद का अनुभव नहीं होता; अर्थात् दृष्टि का विषय अभेद, शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से ‘शुद्धात्मा' है और शुद्ध द्रव्यार्थिकनय में पर्याय अत्यन्त गौण हो जाने से ज्ञात ही नहीं होती। अथवा उसका विकल्प भी नहीं आता इसलिए अभेदरूप शुद्धात्मा का अनुभव हो जाता है कि जिसमें विभावपर्याय अत्यन्त गौण है। यही विधि है निर्विकल्प सम्यग्दर्शन की अर्थात् उसमें द्रव्य को पर्यायरहित प्राप्त करने का अथवा किसी भी विभावभाव के निषेध का विकल्प न करके, मात्र दृष्टि के विषयरूप 'शुद्धात्मा' को ही शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से ग्रहण करने पर अन्य सर्व अपने आप ही अत्यन्त गौण हो जाते हैं।
परन्तु जो ऐसा न करके निषेध का ही आग्रह रखते हैं, वे मात्र निषेधरूप विकल्प में ही रहते हैं और निर्विकल्पस्वरूप का अनुभव नहीं कर सकते परन्तु वे मात्र भ्रम में ही रहते हैं और अपने को सम्यग्दृष्टि समझकर अनन्त परावर्तन को आमन्त्रण देते हैं, जो करुणा उपजानेवाली बात है। श्लोक २४६-‘जैसे ईंधनयुक्त अग्नि वृद्धि को प्राप्त होती है (अर्थात् जब तक ईंधन है, तब तक अग्नि की वृद्धि होती है), उसी प्रकार जब तक जीवों को चिन्ता (विकल्प) है, तब तक संसार है।' अर्थात् निर्विकल्पस्वरूप 'शुद्धात्मा' ही उपादेय है।
गाथा १४६ अन्वयार्थ-‘जो परभाव को परित्यागकर (अर्थात् दृष्टि में अत्यन्त गौण करके)