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दृष्टि का विषय
शुद्धात्मा में 'मैंपना' करनेवाले योग की) उत्तम भक्ति करता हूँ (अर्थात् उसे ही बारम्बार भाता हूँ), संसार की घोर भीति से सर्व जीव नित्य यह उत्तम भक्ति करो।' अर्थात् सबको उसी शुद्ध योग की भक्ति की ही प्रेरणा देते हैं, नहीं कि चापलुसाईवाली भक्ति की अथवा व्यक्ति रागरूप भक्ति की।
गाथा १४१ अन्वयार्थ-‘जो अन्यवश नहीं (अर्थात् जो पूर्ण भेदज्ञान करके मात्र शुद्धात्मा में ही 'मैंपना' करता है और इस कारण से जो कुछ कर्मों का उदय होता है, उदय आता है, उसे समताभाव से भोगता है अर्थात् उसमें अच्छा-बुरा अर्थात् इष्ट-अनिष्ट बुद्धि नहीं करता, इसलिए वह अन्यवश नहीं है) उसे (निश्चय परम) आवश्यक कर्म कहते हैं (अर्थात् उस जीव को आवश्यक कर्म है ऐसा परम योगीश्वर कहते हैं)। (ऐसा) कर्म का विनाश करनेवाला योग (अर्थात् ऐसा जो यह आवश्यक कार्य) वह निर्वाण का मार्ग है ऐसा कहा है।'
श्लोक २३८-स्ववशता से उत्पन्न आवश्यक कर्मस्वरूप यह साक्षात् धर्म नियम से (निश्चितरूप से) सच्चिदानन्दमूर्ति आत्मा में (सत्-चित्-आनन्दस्वरूप आत्मा में अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप आत्मा में) अतिशयरूप से होता है। वह यह (आत्मस्थित धर्म), कर्म क्षय करने में कुशल ऐसा निर्वाण का एक मार्ग है। उससे ही मैं (अर्थात् उसमें ही 'मैंपना' करके मैं) शीघ्र कोई (अद्भुत) निर्विकल्प सुख को प्राप्त करता हूँ।' अर्थात् स्वात्मानुभूति में अद्भुतअतीन्द्रिय निर्विकल्प आनन्द ही होता है, उसे मैं प्राप्त करता हूँ। ___ श्लोक २३९- कोई योगी स्वहित में लीन रहता हुआ शुद्ध जीवास्तिकाय (अर्थात् पूर्ण जीव जो कि प्रमाण का विषय है, उसमें से विभावभाव अर्थात परलक्ष्य से/कर्म के लक्ष्य से होनेवाले भावों को गौण करते ही, अर्थात् उस जीव को द्रव्यदृष्टि से निहारते ही वह परमपारिणामिकभावरूप शुद्ध जीवास्तिकाय प्राप्त होता है, वह अपने) अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं होता, ऐसा जो सुस्थित रहना, वह निरुक्ति (अर्थात् अवशपने का व्युत्पत्ति अर्थ) है, ऐसा करने से (अर्थात् अपने में लीन रहकर पर के वश नहीं होने से) दुरितरूपी (दुष्कर्मरूपी) तिमिरपुंज का जिसने नाश किया है (अर्थात् वह किसी भी प्रकार के पाप आचरता नहीं ऐसा अर्थात् भाव मुनि) ऐसे उस योगी को सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा (अर्थात् परमपारिणामिक भावस्वरूप कारणसमयसाररूप सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा) सहज अवस्था (अर्थात् कार्यसमयसाररूपी मुक्ति) प्रगट होने से अमूर्तपना (सिद्धत्व की प्राप्ति) होता है।'
श्लोक २४१-'कलिकाल में (अर्थात् वर्तमान हुण्डावसर्पिणी पंचम काल में) भी कहींकोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादिरूप मल कादव से रहित (अर्थात् सम्यग्दर्शनसहित) और सद्धर्म रक्षामणि ऐसा समर्थ मुनि होता है। जिसने अनेक परिग्रहों का विस्तार छोड़ा है और जो पापरूपी