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नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय
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प्राप्त करता है अर्थात् सिद्धिरूपी स्त्री का स्वामी होता है।' अर्थात् शुद्धात्मा के ध्यान से ही अरिहन्त होता है और फिर सिद्ध होकर मुक्त होता है।
गाथा १३७-टीका का श्लोक-‘आत्म प्रयत्न सापेक्ष विशिष्ट जो मनोगति (अर्थात् नोइन्द्रियरूप मन द्वारा जो, आत्मा को स्वानुभव होता है वह), उसका ब्रह्म में संयोग होना (अर्थात् स्वात्मानुभूति होती है अर्थात् शुद्धात्मा में=ब्रह्म में 'मैंपना' =सोऽहं करते ही सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है) उसे योग कहा जाता है।'
जैन सिद्धान्त अनुसार योग की यह व्याख्या है और यही योग आत्मा के लिये हितकर है, जबकि अन्य योग, मात्र विकल्परूप आर्तध्यान के कारण होने से सेवन योग्य नहीं है; इसीलिए आगे योग भक्तिवाले जीव की व्याख्या करते हैं, वही भक्ति का भी स्वरूप है।
श्लोक २२८-'जो यह आत्मा आत्मा को आत्मा के साथ निरन्तर जोड़ता है (अर्थात् एकमात्र शुद्धात्मा का ही ध्यान करता है, अनुभवन करता है), वह मुनिश्वर निश्चय से योग भक्तिवाला है।'
गाथा १३८ अन्वयार्थ-'जो साधु सर्व विकल्पों के अभाव में (अर्थात् निर्विकल्प स्वरूप परमपारिणामिकभाव में) आत्मा को जोड़ता है (अर्थात् उसमें ही 'मैंपना' करता है), वह योगभक्तिवाला है; दूसरे को योग किस प्रकार हो सकता है?' अर्थात् ऐसे स्वात्मानुभूतिरूप योग के अतिरिक्त दूसरे को योग माना ही नहीं अर्थात् दूसरा कोई योग कार्यकारी नहीं।
श्लोक २२९-'भेद का अभाव होने पर (अर्थात् अभेदभाव से शुद्धात्मा को भाने पर अर्थात् अनुभव करने पर) अनुत्तम (श्रेष्ठ) योगभक्ति होती है; उसके द्वारा योगियों को आत्मलब्धिरूप ऐसी वह (प्रसिद्ध) मुक्ति होती है।' अर्थात् ऐसा ही योग मुक्ति का कारण है और इसलिए अभेदभाव से शुद्धात्मा ही भाने योग्य है, अन्य कोई नहीं।
____ गाथा १३९ अन्वयार्थ-'विपरीत अभिनिवेश का परित्याग (अर्थात् मताग्रह, हठाग्रह इत्यादि का त्याग) करके जो जैन कथित तत्त्वों में आत्मा को जोड़ता है, उसका निजभाव (अर्थात् शुद्धात्मानुभूति) वह योग है।'
गाथा १४० अन्वयार्थ-वृषभादि जिनवरेन्द्र इस प्रकार योग की उत्तम भक्ति करके निवृत्ति सुख को प्राप्त हुए; इसलिए योग की (ऐसी) उत्तम भक्ति को तू धारण कर (नहीं कि अन्ध भक्ति अथवा व्यक्ति रागरूप भक्ति)।'
श्लोक २३३-'अपुर्नभव सुख की (मुक्ति सुख की) सिद्धि के लिये मैं शुद्ध योग की (अर्थात्