________________
नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय
107
से मुक्त होने के उपायरूप चारित्र ग्रहण इत्यादि करता है कि जिससे वह साक्षात् शुद्धात्मरूप मुक्ति प्राप्त कर सकता है नहीं कि पुण्य के लक्ष्यरूप चारित्र अर्थात् यह पुरुषार्थ शुद्धात्मा के आश्रय से, कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये ही होता है, अन्यथा नहीं), इसलिए चारित्र होता है। उसे (चारित्र को) दृढ़ करने के निमित्त मैं प्रतिक्रमणादि कहूँगा।'
गाथा ८३ अन्वयार्थ-‘वचन रचना को छोड़कर (अर्थात् जो प्रतिक्रमण सूत्ररूप वचन रचना है, वह विकल्परूप होने से उसे छोड़कर निर्विकल्प शुद्धात्मा को भाना, अनुभव करना और उसमें ही स्थिर होना, वही प्रतिक्रमणादि का लक्ष्य है और यदि वह लक्ष्य ही सिद्ध हो जाता हो तो उस वचन रचनारूप प्रतिक्रमण की आवश्यकता पूरी हो जाती है) रागादि भावों का निवारण करके (अर्थात् जीव के रागादि जो भाव हैं उन्हें ध्यान में न लेकर अर्थात् उन्हें गौण करके अर्थात् उन रागादि भावों में मैंपना नहीं करके), जो आत्मा को (परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा को) ध्याता है, उसे (परमार्थ) प्रतिक्रमण होता है।'
गाथा ९२ अन्वयार्थ-'उत्तमार्थ (उत्तम पदार्थ) आत्मा है। (उस शुद्धात्मा में) उसमें स्थित मुनिवर कर्म का नाश करते हैं इसलिए ध्यान ही (शुद्धात्मा का ध्यान ही) वास्तव में उत्तमार्थ का प्रतिक्रमण है।'
श्लोक १२२-‘समस्त विभाव को तथा व्यवहारमार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर (अर्थात् समस्त विभाव को गौण करके तथा व्यवहार रत्नत्रय के सर्व विकल्प शान्त करके) निज तत्त्ववेदी (निज
आत्मतत्त्व को जाननेवाला-अनुभव करनेवाला) मतिमान पुरुष शुद्ध आत्मतत्त्व में नियत (जुड़ा हुआ) ऐसा जो एक निज ज्ञान, दूसरा श्रद्धान और फिर तीसरा चारित्र, उसका आश्रय करता है।'
श्लोक १२३- आत्मध्यान के अतिरिक्त दूसरा सब घोर संसार का मूल है (अर्थात् ध्यान मात्र शद्धात्मा का ही श्रेष्ठ है) और ध्यान ध्येयादिक सतप (अर्थात ध्यान. ध्येय इत्यादि के विकल्पवाला शुभतप भी) कल्पनामात्र रम्य है (अर्थात् वास्तव में अच्छा नहीं है, कल्पनामात्र अच्छा है); ऐसा जानकर धीमान (बुद्धिमान पुरुष) सहज परमानन्दरूपी पीयूष के पूर में डूबते हुए (लीन होते हुए) ऐसे सहज परमात्मा का (परमपारिणामिकभावरूप कारणपरमात्मा का) एक का आश्रय करता है।'
गाथा ९३ अन्वयार्थ-'(शुद्धात्मा के) ध्यान में लीन साधु सर्व दोषों का परित्याग करते हैं; इसलिए ध्यान ही (उस शुद्धात्मा का ध्यान ही) वास्तव में सर्व अतिचार का प्रतिक्रमण है।'
गाथा ९५ अन्वयार्थ-समस्त जल्प को (वचन विस्तार को अर्थात् विकल्पों को) छोड़कर