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दृष्टि का विषय
की खान है, जो (सर्व) तत्त्वों में सार है और जो निज परिणति के सुख सागर में मग्न होता है।'
श्लोक ६६ अन्वयार्थ-'जो अनाकुल है, अच्युत है, जन्म-मृत्यु, रोगादि से रहित है, सहज निर्मल सुखामृतमय है, उस समयसार को (अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा, की जिसे कारणसमयसार अथवा कारणशुद्धपर्याय भी कहा जाता है, उसे) मैं समरस (अर्थात् उसमें ही एकरस होकर, उसमें ही एकत्व करके) द्वारा सदा पूजता हूँ।' अर्थात् मैं सदा समयसाररूप परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा की भावना भाता हूँ।
गाथा ४४ अन्वयार्थ- आत्मा (शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय ऐसा शुद्धात्मा) निर्ग्रन्थ, निराग, नि:शल्य, सर्व दोषविमुक्त, निष्काम, नि:क्रोध, निर्मान, और निर्मद है।' आगे आचार्य भगवान कहते हैं कि स्त्री, पुरुष आदि पर्यायें, रस-गन्ध-वर्ण-स्पर्श और संस्थान तथा संहनन इत्यादि रूप पुद्गल की पर्यायें तो आत्मा की हैं ही नहीं परन्तु वैसे जो भाव आत्मा में होते हैं, उनमें भी मेरा मैंपना' नहीं, उनसे व्यतिरिक्त जो परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा है, उसमें ही मेरा 'मैंपना' है; इसलिए वे जीव कोई भी लिंग से (अर्थात् विशेषरूप परिणमन से-पर्याय से) ग्रहण हो वैसे नहीं हैं, वैसा जीव मात्र अव्यक्तरूप है और वह पूर्व में बतलाये अनुसार भाव मन का विषय होता है और वही शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषयरूप शुद्धात्मा की अपेक्षा से सर्व जीव स्वभाव से सिद्धसमान ही हैं' ऐसा कहने में आता है और वैसा शुद्धात्मा ही उपादेय है अर्थात् एकत्व करने योग्य है।
श्लोक ७३ अन्वयार्थ-'शुद्धनिश्चयनय से मुक्ति में तथा संसार में अन्तर नहीं है। ऐसा ही वास्तव में, तत्त्व विचारते शुद्ध तत्त्व के रसिक पुरुष कहते हैं।'
__ अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से जीव तीनों काल सम्पूर्ण शुद्ध ही है, नहीं कि जीव का कोई भाग शुद्ध और दूसरा भाग अशुद्ध। नय पद्धति में पूर्ण द्रव्य (प्रमाण का द्रव्य ही) मलिन पर्यायरूप अथवा पूर्ण शुद्धरूप इत्यादि, अपेक्षा से कहा जाता है और वैसा ही समझ में आता है, अन्यथा एकान्त से नहीं; यदि उसे एकान्त से मलिन अथवा शुद्धरूप मानने में आवे तो वह जैनदर्शन बाह्य ही समझना। आगे आचार्य भगवन्त सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये किस प्रकार से और किससे भेदज्ञान करना है, वह बतलाते हैं। जैसे कि नारकादि पर्यायें, मार्गणास्थान, गुणस्थान, जीवस्थान, बाल वृद्ध इत्यादि शरीर की अवस्थायें, राग-द्वेषरूप कषायें मैं नहीं, मैं उनका कर्ता, कार्यिता नहीं अथवा अनुमोदक भी नहीं अर्थात् उनमें मेरा कोई कर्ताभाव नहीं और उन्हें अच्छा मानता भी नहीं।
गाथा ८२ अन्वयार्थ-‘ऐसा भेद अभ्यास होने पर जीव मध्यस्थ होता है (अर्थात् ज्ञानी को लब्ध में शुद्धात्मा और उपयोग में वर्तमान दशा होने से, ज्ञानी उस वर्तमान अशुद्ध दशा में