SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार-अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय 95 आत्मा में औदयिकभावरूप विभाव हो, परन्तु वह क्षणिक है, वह तीनों काल रहनेवाला नहीं है, इसलिए असत् है) उसकी हमें चिन्ता नहीं है, हम तो हृदयकमल में स्थित (अर्थात् मन में जो शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषयरूप सहज समयसाररूप मेरा स्वरूप है, उसमें स्थित), सर्व कर्म से विमुक्त, शुद्ध आत्मा का एक का सतत अनुभवन करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है, नहीं ही है।' अर्थात् अन्य कोई भाव उपादेय नहीं, अन्य कोई भाव भजने योग्य नहीं; एकमात्र शुद्धात्मा को भजते ही, अनुभव करते ही और उसमें ही स्थिरता करते ही, मुक्ति सहज ही है। अन्य किसी प्रकार से नहीं, नहीं, नहीं ही है (वजन देने के लिये तीन बार नहीं कहा है।) गाथा १९ अन्वयार्थ-'द्रव्यार्थिकनय से जीव पूर्व कथित पर्यायों से व्यतिरिक्त (रहित) है; पर्यायनय से जीव उस पर्याय से संयुक्त है, इस प्रकार जीव दोनों नयों से संयुक्त है।' अर्थात् एक ही संसारी जीव को देखने की अनुभव करने की दृष्टिभेद से भेद है, उस जीव में कोई भाग शुद्ध अथवा कोई भाग अशुद्ध-ऐसा नहीं है परन्तु अपेक्षा से अर्थात् द्रव्यदृष्टि से अथवा पर्यायदृष्टि से वही जीव अनुक्रम से शुद्ध अथवा अशुद्ध भासित होता है; इसलिए यदि कुछ करना हो तो, वह मात्र दृष्टि बदलनी है, अन्य कुछ नहीं। __ श्लोक ३६-'जो दो नयों के सम्बन्ध का उल्लंघन न करते हुए (अर्थात् कोई भी बात अपेक्षा से समझनेवाले अर्थात् एकान्त से शुद्ध अथवा एकान्त से अशुद्ध कहनेवाले-माननेवाले, वे दोनों मिथ्यात्वी हैं जबकि अपेक्षा से शुद्ध और अपेक्षा से अशुद्ध माननेवाले-कहनेवाले नयों के सम्बन्ध को नहीं उल्लंघते हुए जीव समझना) परम जिन के पादपंकजयुगल में मत्त हुए भ्रमर समान है (अर्थात् ऐसे जीव परम जिनरूप ऐसे अपने शुद्धात्मा में-परमपारिणामिकभाव में-कारणसमयसार मेंकारणशुद्धपर्याय में मत्त हैं) ऐसे जो सत्पुरुष वे शीघ्र समयसार को (कार्यसमयसार को) अवश्य प्राप्त करते हैं। पृथ्वी पर मत के कथन से सज्जनों को क्या काम है (अर्थात् जगत के जैनेतर दर्शनों के मिथ्या कथनों से सज्जनों को क्या लाभ है?)' अर्थात् जो कोई दर्शन इस शुद्धात्मरूप कारणसमयसार को अन्य किसी प्रकार से अर्थात् एकान्त से शुद्ध समझता है अथवा एकान्त से अशुद्ध समझता है, वह भी जैनेतर दर्शन ही है अर्थात् मिथ्यादर्शन ही है।
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy