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________________ 94 दृष्टि का विषय विराजता है-लक्ष्य में रहता है)। अपने से उत्पन्न ऐसे उस परमब्रह्मस्वरूप समयसार को-कि जिसे तू भज रहा है (अर्थात् जिसमें तू मैंपना' कर रहा है) उसे, हे भव्य शार्दूल! (भव्योत्तम) तू शीघ्र भज (मात्र उसी में उपयोग रख), तू वह है।' ____ आचार्य भगवन्त कहते हैं कि 'तू वह है' अर्थात् तू मात्र उसमें ही 'मैंपना' (एकत्व) कर, कि जो सम्यग्दर्शन का विषय है और उसका ही अनुभव होने से सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है, इसलिए कहते हैं कि तू वह है, यही सम्यग्दर्शन की विधि है। श्लोक २६-'जीवत्व क्वचित् सद्गुणों सहित विलसता है-दिखायी देता है, क्वचित् अशुद्धरूप गुणों सहित विलसता है (अर्थात् कोई जीव प्रगट गुणों सहित जानने में आता है और किसी के गुण अशुद्ध रूप से परिणमित होने से अशुद्ध भासित होता है), क्वचित् सहज पर्यायों सहित विलसता है (अर्थात् कोई कार्यसमयसाररूप परिणमित हुआ होता है) और क्वचित् अशुद्ध पर्यायों सहित विलसता है (अर्थात् कोई जीव संसार में अशुद्ध पर्यायोंसहित परिणमित हुए ज्ञात होते हैं)। इन सबसे सहित होने पर भी (अर्थात् कोई प्रगट भाव शुद्धरूप से है अथवा कोई प्रगटभाव अशुद्धरूप होने पर भी) जो इन सबसे रहित है (अर्थात् जो शुद्ध, अशुद्ध भावोंरूप बताये हुए समस्त विशेष भावों से रहित है अर्थात् औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकभावों से रहित है) ऐसे इस जीवत्व को (अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप परिणमते शुद्धात्मरूप कारणसमयसार को-कारण शुद्धपर्याय को) में सकल अर्थ की सिद्धि के लिये सदा नमता हूँ, भाता हूँ।' क्योंकि वह सम्यग्दर्शन का विषय है और इसीलिए उस भाव में ही 'मैंपना' करने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है कि जिससे मोक्ष यात्रा का प्रारम्भ होता है और काल से मोक्ष होते ही सकल अर्थ की सिद्धि होती है, ऐसा भाव इस गाथा में व्यक्त किया है। श्लोक ३०-'सकल मोहरागद्वेषवाला जो कोई पुरुष परम गुरु के चरणकमलयुगल की सेवा के प्रसाद से (अर्थात् परम गुरु से तत्त्व समझकर)-निर्विकल्प सहज समयसार को (अर्थात् परम पारिणामिकभावरूप कारणसयसार को) जानता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी सुन्दरी का प्रियकान्त होता है।' अर्थात् इस काल में इस निर्विकल्प सहज समयसार को जाननेवालों को परम गुरु कहा है, क्योंकि इस काल में सम्यग्दर्शनयुक्त जीव बहुत ही अल्प होते हैं और ऐसे परम गुरु के कहे अनुसार निर्विकल्प सहजसमयसार को जो जानता है अर्थात् अनुभव करता है, वह सम्यग्दर्शनयुक्त होकर नियम से मुक्त होता है। श्लोक ३४- (हमारे आत्मस्वभाव में) विभाव असत् होने से (अर्थात् अभी भले हमारे
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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