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• मेरे ही क्रोध, मान, माया, लोभ मेरे कट्टर शत्रु हैं,
बाकी विश्व में मेरा कोई शत्रु ही नहीं है। एक-एक कषाय अनंत परावर्तन कराने के लिए शक्तिमान है और मुझमें उन कषायों का वास है तो मेरा क्या होगा? इसलिए शीघ्रता से सर्व कषायों का नाश चाहना और उसका ही पुरुषार्थ आदरना। अहंकार और ममकार अनंत संसार का कारण होने को सक्षम है; इसलिए उनसे बचने का उपाय करना। निंदा मात्र अपनी करना अर्थात् अपने दुर्गुणों की ही करना, दूसरों के दुर्गुण देखकर सर्व प्रथम स्वयं अपने भाव जाँचना और यदि वे दुर्गुण अपने में हों तो निकाल देना और उनके प्रति उपेक्षाभाव अथवा करुणाभाव रखना, क्योंकि दूसरे की निंदा से तो हमें बहुत कर्मबंध होता है अर्थात् कोई दूसरे के घर का कचरा अपने घर में डालता ही नहीं। इस प्रकार दूसरे की निंदा करने से उसके कर्म साफ होते हैं, जबकि मेरे कर्मों का बंध होता है। ईर्ष्या करनी हो तो मात्र भगवान की ही करना अर्थात् भगवान बनने के लिए भगवान की ईर्ष्या करना, अन्यथा नहीं; इसके अतिरिक्त किसी की भी ईर्ष्या
नित्य चिंतन कणिकाएँ * ४९