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• माता-पिता के उपकारों का बदला दूसरे किसी भी प्रकार से नहीं चुकाया जा सकता । एकमात्र उन्हें धर्म प्राप्त कराकर ही चुकाया जा सकता है। इसलिए मातापिता की सेवा करना। माता-पिता का स्वभाव अनुकूल न हो तो भी उनकी सेवा पूरी-पूरी करना और उन्हें धर्म प्राप्त करवाना, उसके लिए प्रथम स्वयं धर्म प्राप्त करना आवश्यक है।
• धर्म लज्जित न हो, उसके लिए सर्व जैनों को अपने कुटुंब में, व्यवसाय में, दुकान, ऑफिस इत्यादि में तथा समाज के साथ अपना व्यवहार अच्छा ही हो, इसका ध्यान रखना आवश्यक है।
• अपेक्षा, आग्रह, आसक्ति, अहंकार निकाल देना अत्यंत आवश्यक है।
• स्वदोष देखो, परदोष नहीं; परगुण देखो और उन्हें ग्रहण करो, यह अत्यंत आवश्यक है।
• अनादि की इन्द्रियों की गुलामी छोड़ने योग्य है।
• जो इन्द्रियों के विषयों में जितनी आसक्ति ज्यादा, जितना जो इन्द्रियों का दुरुपयोग ज्यादा, उतनी वे इन्द्रियाँ भविष्य में अनंत काल तक मिलने की संभावना
कम।
४८ सुखी होने की चाबी