________________
उसका ही अनुभव करना, उसे ही सम्यग्दर्शन कहा जाता है। वही इस जीवन का एकमात्र कर्तव्य होना चाहिए। अशुचि भावना- मुझे, मेरे शरीर को सुंदर बताने का जो भाव है और विजातीय के शरीर का आकर्षण है, उस शरीर की चमड़ी को हटाते ही मात्र मांस, खून, पीव, मल, मूत्र इत्यादि ही ज्ञात होते हैं, जो कि अशुचिरूप ही हैं। ऐसा चिंतवन कर अपने शरीर का और विजातीय के शरीर का मोह तजना, उसमें मोहित (मूर्छित) नहीं होना। आस्रव भावना- पुण्य (शुभ) और पाप (अशुभ) ये दोनों मेरे (आत्मा के) लिए आस्रव हैं; इसलिए विवेक द्वारा प्रथम पापों का त्याग करना और एकमात्र आत्मप्राप्ति के लक्ष्य से शुभभाव में रहना कर्तव्य है। संवर भावना- सच्चे (कार्यकारी) संवर की शुरुआत सम्यग्दर्शन से ही होती है, इसलिए उसके लक्ष्य से पापों का त्याग करके एकमात्र सच्चे संवर के लक्ष्य से द्रव्यसंवर पालना। निर्जरा भावना- सच्ची (कार्यकारी) निर्जरा की शुरुआत सम्यग्दर्शन से ही होती है, इसलिए उसके लक्ष्य से पापों का त्याग करके एकमात्र सच्ची निर्जरा के लक्ष्य से यथाशक्ति तप आचरना।
४० * सुखी होने की चाबी