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बारह भावना अनित्य भावना- सर्व संयोग अनित्य हैं वे कोई भी मेरे साथ नित्य रहनेवाले नहीं हैं, इसलिए उनका मोह त्यागना, उनमें 'मैंपना' और मेरापना त्यागना। अशरण भावना- मेरे पापों के उदय समय मुझे मातापिता, पत्नी-पुत्र, पैसा इत्यादि कोई भी शरण हो सके - ऐसा नहीं है। वे मेरा दुःख ले सके - ऐसा नहीं है। इसलिए उनका मोह त्यागना, उनमें मेरापना त्यागना परंतु कर्तव्य पूरी तरह निभाना। संसार भावना- संसार अर्थात् संसरण भटकन और उसमें एक समय के सुख के सामने अनंत काल का दुःख मिलता है; अत: ऐसा संसार किसे रुचेगा? अर्थात् एकमात्र लक्ष्य संसार से छूटने का ही रहना चाहिए। एकत्व भावना- अनादि से मैं अकेला ही भटकता हूँ, अकेला ही दुःख भोगता हूँ; मरण के समय मेरे साथ कोई भी आनेवाला नहीं है। अत: मुझे शक्य हो, उतना अपने में ही (आत्मा में ही) रहने का प्रयत्न करना। अन्यत्व भावना- मैं कौन हूँ? यह चिंतवन करना अर्थात् पूर्व में बताये अनुसार पुद्गल और पुद्गल (कर्म) आश्रित भावों से अपने को भिन्न भाना और उसी में 'मैपना' करना,
बारह भावना * ३९