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भूमिकावाले उसे अभ्यास के लिए अथवा तो पाप से बचने के लिए ग्रहण नहीं कर सकते। बल्कि सबको अवश्य ग्रहण करने योग्य ही है, क्योंकि जिसे दु:ख प्रिय नहीं है - ऐसे जीव, दुःख के कारणरूप पापों का किस प्रकार आचरण कर सकते हैं ? अर्थात् आचरण कर ही नहीं सकते।
अस्तु !
आत्मार्थी को एक ही बात ध्यान में रखने योग्य है कि यह मेरे जीवन का अंतिम दिन है और यदि इस मनुष्य भव में मैंने आत्म-प्राप्ति नहीं की तो अब अनंत, अनंत, अनंत... काल पश्चात् भी मनुष्य जन्म, पूर्ण इन्द्रियों की प्राप्ति, आर्यदेश, उच्च कुल, धर्म की प्राप्ति, धर्म की देशना इत्यादि मिलनेवाले नहीं है; परंतु अनंत, अनंत, अनंत... कालपर्यंत अनंत, अनंत, अनंत... दु:ख ही मिलेंगे। इसलिए यह अमूल्य दुर्लभ मनुष्य जन्म, मात्र शारीरिक इन्द्रियजन्य सुख और उसकी प्राप्ति के लिए खर्च करने योग्य नहीं है। परंतु उसके एक भी पल को व्यर्थ न गँवाकर, एकमात्र शीघ्रता से शाश्वत सुख-आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए ही लगाना योग्य है।
३८ सुखी होने की चाबी