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खाने के समान और रात्रि में पानी पीने को खून पीने के समान बताया है और दूसरा, रात्रिभोजन करनेवाले के सर्व तप-जपयात्रा सब व्यर्थ होते हैं और रात्रिभोजन का पाप सैकड़ों चंद्रायतन तप से भी नहीं धुलता - ऐसा बताया है। ___ जैनदर्शन के अनुसार भी रात्रिभोजन का बहुत पाप बताया है। यहाँ कोई ऐसा कहे कि रात्रिभोजन त्याग इत्यादि व्रत अथवा प्रतिमाएँ तो सम्यग्दर्शन के बाद ही होती हैं तो हमें इस रात्रिभोजन का क्या दोष लगेगा? तो उन्हें हमारा उत्तर है कि रात्रिभोजन का दोष सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि को अधिक ही लगता है; क्योंकि मिथ्यादृष्टि उसे रच-पच कर सेवन करता (होता) है, जबकि सम्यग्दृष्टि को आवश्यक न हो, अनिवार्यता न हो तो ऐसे दोषों का सेवन ही नहीं करता
और यदि किसी काल में ऐसे दोषों का सेवन करता है तो भी भीरुभाव से और रोग की औषधिरूप से करता है; नहीं कि आनंद से अथवा स्वच्छंदता से। इस कारण किसी भी प्रकार का छल किसी को धर्म शास्त्रों में से ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि धर्मशास्त्रों में प्रत्येक बात अपेक्षा से कही होती है। इसलिए व्रत और प्रतिमाएँ पंचम गुणस्थान में कही हैं, उसका अर्थ ऐसा नहीं निकालना चाहिए कि अन्य कोई निम्न
रात्रिभोजन के संबंध में : ३७