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लोकस्वरूप भावना- प्रथम, लोक का स्वरूप जानना, पश्चात् चितवन करना कि मैं अनादि से इस लोक में सर्व प्रदेशों में अनंत बार जन्मा और मरण को प्राप्त हुआ; अनंत दुःख भुगते, अब कब तक यह चालू रखना है ? अर्थात् इसके अंत के लिए सम्यग्दर्शन आवश्यक है। अत: उसकी प्राप्ति का उपाय करना। दूसरा, लोक में रहे हुए अनंत सिद्ध भगवंत और संख्यात अरहंत भगवंत
और साधु भगवंतों की वंदना करना और असंख्यात श्रावक-श्राविकाओं तथा सम्यग्दृष्टि जीवों की अनुमोदना करना, प्रमोद करना। बोधिदुर्लभ भावना- बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन। अनादि से अपनी भटकन का यदि कोई कारण है तो वह है सम्यग्दर्शन का अभाव; इसलिए समझ में आता है कि सम्यग्दर्शन कितना दुर्लभ है और कोई आचार्य भगवंत ने तो कहा है कि वर्तमान काल में सम्यग्दृष्टि अंगुली के पोर पर गिने जा सके इतने ही होते हैं। धर्मस्वरूप भावना- वर्तमान काल में धर्मस्वरूप में बहुत विकृतियाँ प्रवेश कर चुकी हैं, इसलिए सत्य धर्म की शोध और उसका ही चिंतन करना; सर्व पुरुषार्थ उसे प्राप्त करने में लगाना।
बारह भावना * ४१