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का असन्तुलन बढ़ने लगता है। कहने का आशय यही है कि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियाँ अपने-अपने सिद्धान्तों के अनुसार शरीर में इन विकारों की उपस्थिति को रोग अथवा अस्वस्थता का कारण मानते हैं। जो जैसा कारण बतलाता है, उसी के अनुरूप उपचार और परहेज रखने का परामर्श देते हैं। सभी को आंशिक सफलताएँ भी प्राप्त हो रही है तथा सफलताओं एवं अच्छे परिणामों के लम्बे-लम्बे दावे अपनी-अपनी चिकित्सा पद्धतियों के सुनने को मिल रहे हैं। विज्ञान के इस युग में किसी पद्धति को बिना सोचे-समझे अवैज्ञानिक मानना, न्याय-संगत नहीं कहा जा सकता। फिर भी इतना अवश्य है कि अधिकांश चिकित्सा पद्धतियाँ रोग के मूल कारणों को समझने एवं दूर करने में अपने-आपको असमर्थ पा रही है। क्योंकि उनके चिन्तन में समग्रता का अभाव होता है। जिसका जितना ज्यादा विज्ञापन, प्रचार-प्रसार होता है, उस पद्धति का बिना सोचे समझ रोग की अवस्था में रोगी और उसके परिजनों की असजगता, अधीरता, अज्ञानवंश उपचार हेतु प्रायः अन्ध नुकरण हो रहा है। परिणाम स्पष्ट है कि डाक्टरों और अस्पतालों की संख्या में निरन्तर वृद्धि के बावजूद रोग और रोगियों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है, जो स्वास्थ्य के प्रति हमारी अदूरदर्शिता, गलत चिन्तन, अप्राकृतिक जीवनशैली, अज्ञान, अविवेक एवं गलत सोच का सूचक है।
आज उपचार के नाम पर रोग के कारणों को दूर करने के बजाय अपने-अपने सिद्धांतों के आधार पर रोग के लक्षण मिटाने का प्रयास हो रहा है। उपचार में समग्र दृष्टिकोण का अभाव होने से तथा रोग का कारण पता लगाये बिना उपचार किया जा रहा है अर्थात् रोग से राहत ही उपचार का लक्ष्य बनता जा रहा है । अतः अच्छा स्वस्थ्य जीने की भावना रखने वालों को स्वास्थ्य के मूलभूत सनातन प्राकृतिक साधारण नियमों का ईमानदारी पूर्वक सजगता एवं स्वविवेक से पालन करना चाहिये। जितना-जितना हमारा प्रकृति के साथ तालमेल होगा, उतना - उतना हम स्वस्थता के समीप होते जाएंगे। आकस्मिक दुर्घटनाओं को छोड़ अन्य परिस्थितियों में रोग का सही कारण जानने का भी प्रयास करना चाहिये, ताकि रोग की पुनरावृत्ति और उपचार के दुष्प्रभावों से स्वयं को बचाया जा सके । उपचार की आवश्यक प्राथमिकताएँ :
. स्वस्थ रहने के लिये आवश्यक है कि हम स्वाभाविक प्राकृतिक जीवन एँ । रोग उत्पन्न करने वाले कारणों से यथा सम्भव बचने का प्रयास करें। शरीर, मन ओर आत्मा के विकास में जो सहायक हैं, ऐसे सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् आचरण के संवर्द्धन हेतु सतत प्रयत्नशील रहें । शरीर, मन और आत्मा पर जो विकार हैं, उन्हें प्राथमिकता के आधार पर दूर करने का सम्यक् पुरुषार्थ करने से ही हम स्थायी स्वास्थ्य को प्राप्त कर सकते हैं। फिर भी रोग उत्पन्न हो जायें तो उपचार करते अथवा करवाते समय इस बात का अवश्य विवेक रखें कि उपचार
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